अंतःपथ
निशि की म्लान छाया मेंविकल रथ बंधा खड़ा है —
सुनसान नभ की थरथराती निस्तब्धता में
कोई निमंत्रण-सा काँपता है।
स्वप्निल तम के आवरण में
चिर निद्रा में लिपटी गोपा की पलकों पर
करुण रेखा-सी बसी है स्मृति —
जिसे तोड़ना है, पर वह टूटती नहीं।
हृदय के गुह्य कक्ष में
कोई मौन स्वर करता है पुकार,
"बुद्ध बनो — छोड़ दो
ये मोह के मृगजल!"
पर एक अन्य स्वर,
नरम मलय पवन-सा,
कहता है —
"क्या सब कुछ अब भी निष्प्रभ है?"
कंचन-केश की सुधियों में
बसी बाल क्रीड़ा की छाया,
वात्सल्य की पावन गंध
अब भी घुल रही है अंतर के कंदरा में।
नैवेद्य-सी रोटियों की जली हुई महक,
और रजत थाल में छलकते नयन
अब भी गा रहे हैं अतीत के गीत।
बुद्ध बनना क्या सहज है?
त्याग के पथ पर चलना
क्या निष्प्राण हो जाना ही है?
नहीं! त्याग केवल वसन का नहीं —
हृदय के अंतराल में जागृत
हर स्पंदन को तजना होता है।
शून्य के उस क्षितिज पर
मोक्ष नहीं,
पूर्णता का वरण है —
जहाँ आत्मा स्वयं को
प्रकाशित करती है
एक अनहद नाद में।
अब निर्णय तुझ पर है —
कि तूं रथ चढ़े,
या अन्तःपथ की ओर
एक बार और लौट चले —
जहाँ
छाया है, स्वर है, मोह है —
और शायद,
मुक्ति भी वहीं है।
. स्वरचित, मौलिक एवं पूर्व प्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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