गंगोत्सव की आड़ में आस्था का अपमान : 41 फीट की गंगा मूर्ति का खंडन और सनातन चेतना पर आघात

डॉ राकेश दत्त मिश्र
मां गंगा केवल एक नदी नहीं हैं। वे भारतवर्ष की सांस्कृतिक चेतना, अध्यात्मिक परंपरा और सनातन धर्म की जीवनधारा हैं। गंगा के प्रति भारतीय जनमानस की श्रद्धा सदियों से अटूट रही है। गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक, यह केवल जलधारा नहीं, अपितु जीवनधारा है। ऐसे में जब पटना सिटी के कंगन घाट पर 41 फीट ऊँची प्रतिमा स्थापित कर गंगोत्सव के नाम पर भव्य आयोजन किया गया, तो जनमानस ने इसे श्रद्धा और आस्था के उत्सव के रूप में देखा। लेकिन जब उसी प्रतिमा को आयोजन के बाद तोड़कर विसर्जित कर दिया गया, वह भी क्रेन और बुलडोज़र जैसे यंत्रों द्वारा, तब यह आयोजन श्रद्धा का नहीं, आस्था के अपमान का प्रतीक बन गया।
भव्यता से आस्था तक की यात्रा – और फिर अपमान
गंगोत्सव का आयोजन किसी छोटे स्तर की घटना नहीं थी। यह एक भव्य सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रम के रूप में पूरे बिहार में चर्चित हुआ। आयोजन में न केवल स्थानीय कलाकारों को, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कलाकारों को भी आमंत्रित किया गया। लाखों रुपये खर्च कर मंच, सजावट, सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रसाद वितरण और विशाल गंगा मूर्ति की स्थापना की गई।
स्थानीय मीडिया और सोशल मीडिया पर इस आयोजन की प्रशंसा के पुल बांधे गए। जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति, धार्मिक अनुष्ठान, पूजन, आरती – सब कुछ एक जीवंत धार्मिक वातावरण तैयार करने के लिए किया गया। लेकिन कोई नहीं जानता था कि यह आयोजन अंततः एक ऐसा दृश्य प्रस्तुत करेगा, जो करोड़ों आस्थावानों के हृदय को छलनी कर देगा।
मूर्ति खंडन – क्या यह विसर्जन था या आस्था की हत्या?
11 दिनों के आयोजन के बाद जब समय आया मां गंगा की प्रतिमा को विसर्जित करने का, तब वह सम्मानजनक रूप से जल में प्रवाहित नहीं की गई, ना ही वैदिक विधि से किसी श्रद्धा के साथ उसे विदा किया गया। इसके विपरीत, प्रतिमा को क्रेन के माध्यम से उठाकर ज़बरन ज़मीन पर गिराया गया और खंडित कर दिया गया। एक ऐसी मूर्ति, जिसकी प्राण प्रतिष्ठा की गई थी, जो पूजनीय बन चुकी थी, उसे इस प्रकार तोड़ना न केवल मूर्ति का अनादर है, बल्कि सनातन संस्कृति के मूल सिद्धांतों का भी अपमान है।
यह दृश्य जिसने भी देखा, उसका हृदय रो उठा। सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो में प्रतिमा को ज़मीन पर गिरते हुए और उसके टुकड़े-टुकड़े होते हुए साफ़ देखा जा सकता है। यह दृश्य किसी ‘विसर्जन’ का नहीं, बल्कि आस्था की ‘हत्या’ का प्रतीक था।
आयोजक कौन? उत्तरदायित्व तय होना चाहिए
जैसे-जैसे यह घटना सार्वजनिक हुई, लोगों में आक्रोश फैलता गया। बताया जा रहा है कि इस आयोजन की जिम्मेदारी शिशिर साहू नामक व्यक्ति की संस्था के पास थी, जो पटना की महापौर सीता साहू के पुत्र हैं। यदि यह सत्य है तो यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जनप्रतिनिधियों के परिजन आस्था के नाम पर राजनीति, प्रचार और अंत में अपमान की पटकथा लिख रहे हैं।
सवाल उठता है –
1. क्या आयोजकों को यह ज्ञात नहीं था कि प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति को तोड़ना धार्मिक रूप से अक्षम्य अपराध है?
2. क्या इसके लिए वैकल्पिक सम्मानजनक विसर्जन की व्यवस्था नहीं की जा सकती थी?
3. क्या यह सिर्फ आयोजन कर राजनीतिक लाभ उठाने और मीडिया में स्थान पाने का एक माध्यम था?
धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से यह पाप क्यों है?
सनातन धर्म में मूर्ति निर्माण, प्राण प्रतिष्ठा और विसर्जन की विधियों का विस्तृत वर्णन है। प्राण प्रतिष्ठा के बाद कोई मूर्ति मात्र मूर्ति नहीं रह जाती, वह जीवंत देवता का स्वरूप बन जाती है। ऐसी मूर्ति का अनादर, विशेषतः बलपूर्वक खंडन, 'देवद्रोह' की श्रेणी में आता है। यह वैसा ही है, जैसे किसी मंदिर की मूर्ति को विधर्मियों द्वारा तोड़ा जाए – और यही बात इस घटना को और भी गंभीर बनाती है।
धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, ऐसी मूर्तियों का विसर्जन नदी या पवित्र जलधारा में, मंत्रोच्चार के साथ, पुष्पांजलि और आरती के साथ करना चाहिए, ताकि देवता को सम्मानपूर्वक विदा किया जा सके। क्रेन से पटककर तोड़ देना इस पवित्र परंपरा की हत्या है।
मूकदर्शक भी उतने ही दोषी हैं
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब यह सब हो रहा था, तब वहां मौजूद सैकड़ों लोग – आयोजक, कार्यकर्ता, भक्त, नागरिक – क्यों चुप रहे? क्या हमारी चेतना इतनी मर चुकी है कि हमारे सामने मां गंगा की प्रतिमा को खंडित किया जाए और हम सिर्फ वीडियो बनाते रहें? क्या सनातन धर्म के अनुयायी अब केवल कैमरे में कैद होने के लिए बच गए हैं?
धर्म की रक्षा केवल सोशल मीडिया पोस्ट से नहीं होती। जब अन्य धर्मों के लोगों की आस्था पर कोई प्रहार होता है, तो पूरा समाज एकजुट होकर विरोध करता है। लेकिन जब हमारे अपने लोग हमारे ही धर्म की जड़ों को काटते हैं, तो हम मौन क्यों हो जाते हैं?
यह केवल मूर्ति नहीं टूटी, हमारी आत्मा टूटी है
गंगा केवल जल की धारा नहीं, भारत की आत्मा है। जब उस आत्मा को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया, तो वह केवल धार्मिक अपराध नहीं था, बल्कि सांस्कृतिक आत्मघात था। यह हमें चेतावनी देता है कि –
· केवल भव्य आयोजन करने से धर्म नहीं बचता।
· केवल मूर्तियां गढ़ने से श्रद्धा नहीं बनती।
· जब तक आस्था को सम्मान नहीं देंगे, तब तक सनातन की रक्षा संभव नहीं।
राजनीति और आस्था का यह घातक गठजोड़
वर्तमान समय में हम देख रहे हैं कि धर्म के नाम पर आयोजन करना एक राजनीतिक हथियार बन गया है। मंच सजते हैं, आरती होती है, नेताओं की फोटो खिंचती है, अखबारों में खबर छपती है – लेकिन अंत में श्रद्धा का क्या होता है, यह किसी को नहीं दिखता। यह आयोजन भी उसी सड़ी हुई मानसिकता का उदाहरण था, जहां धर्म एक ‘इवेंट’ बन गया और मां गंगा की प्रतिमा एक ‘प्रॉप’।
मां गंगा क्षमा करेंगी क्या?
गंगा मां क्षमाशील हैं, लेकिन वे न्यायप्रिय भी हैं। उनकी प्रतिमा का यह अपमान केवल आयोजकों का नहीं, पूरे समाज का पाप है। यदि हमने इसका सामूहिक विरोध नहीं किया, यदि हमने ऐसे आयोजनों को रोकने की चेतना नहीं जगाई, तो आने वाली पीढ़ियों को हम क्या जवाब देंगे?
हमें यह समझना होगा कि धर्म केवल आयोजन करने का नाम नहीं, बल्कि श्रद्धा के साथ उसका पालन करने का नाम है। मां गंगा को सम्मान देना है तो केवल गंगोत्सव से नहीं, बल्कि उनके स्वरूप, उनके संदेश और उनकी प्रतिमाओं के प्रति आदर से करना होगा।
निष्कर्ष
कंगन घाट की यह घटना हमें एक गंभीर आत्ममंथन की ओर ले जाती है। यह घटना केवल एक मूर्ति के टूटने की नहीं, बल्कि हमारे भीतर की संवेदना, श्रद्धा और धर्मनिष्ठा के विघटन की कहानी है। अब भी समय है कि हम चेतें, ऐसे आयोजनों का बहिष्कार करें जो धर्म के नाम पर अपमान करते हैं, और सनातन धर्म की गरिमा की रक्षा के लिए संगठित हों।
मां गंगा का अपमान हुआ है, अब यह देखना समाज पर है कि क्या वह केवल पोस्ट लिखेगा या धर्म की रक्षा में आवाज उठाएगा।
लेखक डॉ राकेश दत्त मिश्र, भारतीय जन क्रांति दल के राष्ट्रीय महासचिव और पटना साहिब लोक सभा के पूर्व प्रत्याशी रहें है |
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