नरपुंगव छत्रसाल
डॉ राकेश कुमार आर्य
भारत के महान क्रांति नायक छत्रसाल महाराज का जन्म गहरवार अर्थात गहड़वाल वंश की बुंदेला शाखा के राजपूतों में हुआ था। इनके पूर्वज काशी के गैरवार राजा वीरभद्र के पुत्र हेमकरण थे। जिनका एक नाम पंचम सिंह गहरवार भी था। बताया जाता है कि हेमकरण विंध्यवासिनी देवी के अनन्य भक्त थे। इसलिए उन्हें विंध्यवाला भी कहा जाता था। इतिहास की एक मान्यता है कि इसी विंध्यवाला शब्द से बिगड़कर बुंदेला हो गया।
महाराज पंचम सिंह की इसी वंश परंपरा में आगे चलकर 1501 ईस्वी में ओरछा में रुद्र प्रताप सिंह का शासन आरंभ हुआ। इन्हीं के पुत्र भारतीचंद्र 1539 में ओरछा के राजा बने।
उस समय राज उदारजीत सिंह को महेबा का जागीरदार बनाया गया । इसी महेबा को आजकल लोग महोबा के नाम से पुकारते हैं। राव उदयजीत सिंह की वंश परंपरा में चंपत राय महेबा के राज्यसिंहासन पर विराजमान हुए। चंपत राय बहुत ही वीर, साहसी, शौर्य संपन्न व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें समकालीन विदेशी शासक मुगलों से घोर घृणा थी । वह नहीं चाहते थे कि भारतवर्ष की पवित्र भूमि पर किसी विदेशी आक्रमणकारी का शासन स्थापित हो। उनके भीतर शौर्य और देशभक्ति का पवित्र भाव विराजमान था। इसी से प्रेरित होकर उन्होंने मुगलों के विरुद्ध विद्रोह जारी रखे। रानी सारंधा इन्हीं की पत्नी थी। मुंशी प्रेमचंद जी ने रानी सारंधा के बारे में बहुत कुछ लिखा है। जिससे इतिहास की एक विशेष जानकारी हमको प्राप्त होती है। इसी रानी ने 4 मई 1649 ई को पहाड़ी नामक गांव में एक शिशु को जन्म दिया। जिसका नाम शत्रुसाल रखा गया। इसी बच्चे को आगे चलकर छत्रसाल के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई। वीर माता के पवित्र संस्कार इस बालक को बचपन में ही प्राप्त हो गए थे। रानी बहुत ही स्वाभिमानी थी। इसी प्रकार के पवित्र संस्कारों को रानी ने अपने बच्चे छत्रसाल को दिया। रानी अपने पुत्र को महान देशभक्त बनाना चाहती थीं। यही कारण था कि वह बचपन में ही छत्रसाल को इसी प्रकार की कहानियां सुनाने लगी थीं।
राजा चंपत राय और रानी सारंधा उपनाम लालकुंवरि मुगलों से युद्ध करते हुए संसार से विदा हो गए। उस समय उनके पुत्र छत्रसाल की अवस्था मात्र 14 वर्ष की थी। बालक छत्रसाल ने यह प्रतिज्ञा ली कि वह अपने माता-पिता के हत्यारे मुगलों से उनकी हत्या का प्रतिशोध लेंगे। उनके मन मस्तिष्क में मुगलों से प्रतिशोध लेने की योजना बनने लगी। परंतु अभी समय और परिस्थितियां अनुकूल नहीं थे । साधन भी बहुत सीमित थे। इस सबके उपरान्त भी वह उचित अवसर की खोज में लगे रहे। उन्होंने अपने आपको मुगलों से संघर्ष के लिए तैयार करना आरंभ किया। इसके लिए अनेक प्रकार के युद्ध कौशल को प्राप्त करने की आवश्यकता थी। फलस्वरूप उन्होंने प्रत्येक प्रकार से अपने आप को मजबूत करने की योजना पर कार्य करना आरंभ किया। माता-पिता की मृत्यु के उपरांत वह अपने बड़े भाई अंगद राय के साथ कुछ समय के लिए अपने मामा के घर पर भी रहे। परंतु विद्रोही मन के स्वामी छत्रसाल का वहां पर मन नहीं लगता था। यद्यपि इतना अवश्य था कि वह मामा के यहां रहते हुए ही अनेक प्रकार की युद्ध कलाओं में पारंगत हो गए। उनका विवाह पंवार वंश की कन्या देवकुंवरि के साथ हुआ।
उस समय मुगल वंश का शासक शाहजहां शासन कर रहा था। बालक शत्रुसाल ने अपने जन्म के क्षणों से ही तोपों और बंदूकों की धांय - धांय के साथ तलवारों की छपछपाहट और तीरों की सनसनाहट सुनी थी। जिस बालक ने " धरो, पकड़ो, मारो, शत्रु है, छोड़ो मत " के उच्चारण सुने हों, ' मां विंध्यवासिनी की जय ' ' महाकाली की जय ' और ' हर हर महादेव ' के उच्चारण व उद्घोष सुने हों, वह यदि जन्मजात वीर योद्धा नहीं हो तो और क्या होगा। ( संदर्भ शक्तिपुत्र छत्रसाल पृष्ठ 7778)।
' बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास ' के लेखक गोरेलाल तिवारी का कहना है " छत्रसाल का विद्याध्ययन उनकी 7 वर्ष की आयु से आरंभ हुआ । विद्याअध्ययन व भावनापूर्ण कथा कहानियों के साथ-साथ उन्हें सैनिक शिक्षा दीक्षा भी प्राप्त हो रही थी। इसलिए छत्रसाल एक कुशल सेनापति होने के साथ-साथ कुशल कवि भी बन सके। प्रकृति की गोद में जन्म लेने वाले छत्रसाल चित्रकार भी थे । अपने बाल्य काल में ही वे हाथी, घोड़े ,सवार, बंदूक और तोपों के ही चित्र बनाया करते थे। रक्त की बहती धारा को वे बड़े चाव से देखा करते थे। वीभत्स दृश्यों को देखकर डरने के स्थान पर वे उसके और समीप चले जाया करते थे। मंदिर में नियम पूर्वक जाकर प्रार्थना करना, रामायण और महाभारत की कथाओं को सुनना, वीर योद्धाओं के पराक्रम पूर्ण आख्यानों को सुनना ,छत्रसाल की रुचि थी। अपनी 10 वर्ष की अवस्था में ही वे बरछी, तलवार तथा अन्य शस्त्रों के संचालन की पूरी क्रिया समझ चुके थे तथा उसका कुशलता के साथ प्रयोग भी कर सकते थे। आखेट की रुचि भी उनमें इसी अवस्था में हो गई थी । पुस्तकों के अध्ययन में भी इनका मन बहुत लगता था।"
दिया देश भक्ति का परिचय
छत्रसाल जब अपनी किशोरावस्था में ही थे तो एक दिन विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में मेला लगा हुआ था। तभी एक अपरिचित व्यक्ति को छत्रसाल ने मंदिर में अपने कुछ लोगों के साथ प्रवेश करते हुए देखा। बालक छत्रसाल ने सोचा कि यह व्यक्ति भी मंदिर का कोई श्रद्धालु है। इसलिए उन्होंने कौतूहल के साथ उस व्यक्ति से पूछ लिया कि क्या आप भी यहां पूजा करेंगे ? उस अपरिचित व्यक्ति ने कहा - क्यों ? हम मूर्ति पूजक नहीं, हम तो मूर्तिभंजक हैं। बादशाह के आदेश से हम यहां मूर्ति पूजा समाप्त कराने आए हैं । बताओ यहां की मुख्य मूर्ति किधर है ? " बालक छत्रसाल ने उस मुगल सरदार को रोक लिया और युद्ध के लिए चुनौती दी। देखते ही देखते बालक छत्रसाल के अन्य बाल साथियों ने भी तलवारें भांजनी आरंभ कर दी। संग्राम छिड़ गया। भीतर से छत्रसाल के पिता चंपतराय शोर सुनकर बाहर निकले । उन्होंने वहां युद्ध होता पाया, परन्तु कुछ ही क्षणों में युद्ध समाप्त हो गया । इससे पूर्व कि राजा चंपत राय घटना की वस्तु स्थिति को कुछ समझ पाते ,उनकी दृष्टि इस युद्ध के नायक अपने पुत्र छत्रसाल पर पड़ी, जो मुगलों के सरदार और उसके सैनिकों को शांत करके विजयी मुद्रा में अपने पिता की ओर आ रहा था । जब पिता ने अपने पुत्र को इस रूप में देखा और वस्तुस्थिति को समझा तो उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा।
आर्थिक समस्याओं का खोजा समाधान
अपने बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए छत्रसाल को आर्थिक साधनों को विस्तार देने की आवश्यकता थी। तात्कालिक आधार पर उन्होंने अपनी इस समस्या का निदान करने के लिए मुगलों की सेना में नौकरी करना उचित समझा। यद्यपि वह स्वयं छत्रपति शिवाजी की सेन में जाने की इच्छा रखते थे। परन्तु उनके बड़े भाई अंगदराय और चाचा जामशाह नहीं उसे समय मुगलों की सेवा में भर्ती होना ही उचित माना। मिर्जा राजा जयसिंह उन दिनों दक्षिण का सूबेदार था । जब उसके आगमन का समाचार छत्रसाल को मिला तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि राजा जय सिंह एक हिंदू है और उन्हें हिंदुत्व की शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए अपने साथ लाने का प्रयास करने का यह उत्तम अवसर है। अतः छत्रसाल अपने भाई अंगदराय और चाचा जामशाह को साथ लेकर मिर्जा राजा जयसिंह से मिलने के उद्देश्य से उनके सेना शिविर की ओर चल दिए।
यह अप्रैल 1665 का माह था। किशोर छत्रसाल के प्रस्तावों और उसके वार्तालाप के ढंग से मिर्जा राजा जयसिंह बहुत प्रभावित हुआ। उसने तीनों को ही मुग़ल सेना में भर्ती कर लिया। पुरंदर का घेरा डालने के समय जब इन तीनों ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया तो राजा जयसिंह ने उन तीनों को ही मनसबदारी दिलाने की संस्तुति औरंगजेब से की। जिसे औरंगजेब ने स्वीकार कर लिया।
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है )
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