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"जीवन का युद्धक्षेत्र"

"जीवन का युद्धक्षेत्र"

जीवन रण में न विश्राम, और न कोई युद्धविराम होता,
ना झंडियाँ शांति की, ना समझौता कोई होता।
नीला अम्बर भले मुस्काए, पर संकट चुपके आता,
क्षण में सब कुछ बदले, कोई चेतावनी न बतलाता।


विपत्ति ना समय देखती है, ना दरवाज़ा खटखटाती,
जो भीतर से कमज़ोर हुआ, उसकी लौ बुझ जाती।
हर सुबह एक रणभूमि है, हर साँझ एक परीक्षा,
जो सजग नहीं, विधि करे प्रहार भीषण- तीखा।


हथियार चाहिए धैर्य का, और साहस की ढाल,
संघर्षों की अग्नि में ही बनती है असली चाल।
अश्रु गिरें, थक जाए तन, किंतु मन कभी न डोले,
विपरीत लहरों में ही सच्चे दीपक की जोत ना खोले।


यह संग्राम है अपने भीतर की सच्चाई बचाने का,
हर तीर है भ्रम का, हर चोट—हिम्मत आज़माने का।
ना किसी को हराना है, ना कोई ताज चाहिए,
खुद से लड़कर जो जीते, वही वीर सच्चा कहलाए।


क्योंकि जीवन के युद्ध में ना अल्पविराम मिलता,
ना कोई किनारा ऐसा जहाँ तूफ़ान ना मिलता।
जो निरंतर जगे, वही विजयी कहलाता,
जीवन दीप वही, जो आँधियों में भी मुस्काता।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"

(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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