"आप्रेशन सिंदूर"
वो दोपहर अब भी धुंधली नहीं हुई है—22 अप्रैल का लहू अब भी
भारत की धड़कनों में उबलता है।
वो कोई सामान्य दिन नहीं था—
वो एक आघात था
हमारे सहनशील इतिहास की रीढ़ पर,
जहाँ माँओं की गोद उजड़ गई,
और सिंदूर बह गया—
नदी नहीं, ज्वालामुखी बनकर।
तुमने माला समझी थी हमारी चुप्पी,
पर हम सनातनी हैं—
यहाँ हर माला के पीछे एक भाला होता है।
यहाँ जब क्रोध भी आता है,
तो पहले साधना करता है,
पर जब सीमा पार होती है—
तो संहार भी शिव-तांडव बन जाता है।
तुम भूल गए,
कि हमें अहिंसा बुद्ध ने सिखाई थी,
पर शस्त्र राम और कृष्ण ने भी धारण किए थे।
हमने अर्जुन को गीता सुनाई थी,
पर युद्ध भूमि छोड़ने नहीं दिया था।
हमने फूल उगाए,
पर कांटों को कभी छोड़ा नहीं।
ऑपरेशन सिंदूर—
यह केवल सैन्य प्रतिक्रिया नहीं,
यह एक सांस्कृतिक उत्तर है
उनके लिए
जिन्होंने हमारी माताओं की मांग छीनी,
और समझा कि भारत अब चुप रहेगा।
नहीं।
हमने बंदूकें नहीं उठाईं पहले,
क्योंकि हमने शास्त्रों को सुना था।
पर अब समय आ गया है
जब शास्त्र और शस्त्र—दोनों साथ चलेंगे।
अब आँसू नहीं बहते,
अब आदेश चलते हैं।
अब क्रंदन नहीं, प्रतिशोध है।
अब 260 नहीं,
हर उस विचार का अंत है
जो मौत को मजहब समझता है।
तुम्हारी जमीन,
जहाँ आतंकी फसल की तरह उगते हैं,
अब श्मशान भूमि बन चुकी है।
चार टुकड़े होंगे,
न केवल नक्शे के—
बल्कि उस मानसिकता के
जिसने स्त्रियों के सिंदूर को मिटाया
और सोचा था कि भारत भी मिट जाएगा।
हम नतमस्तक हैं—
उन वीरों के आगे
जिन्होंने अपने प्राणों से सिंदूर की मर्यादा बचाई।
और हम आभार प्रकट करते हैं
उस नेतृत्व का—
जिसने चुप्पी की जगह चीख को
नीति में बदला,
और आँसू की जगह बंदूक को
न्याय का माध्यम बनाया।
भारत अब जाग चुका है।
और जब भारत जागता है,
तो केवल सीमाएँ नहीं,
सभ्यताएँ भी बदल जाती हैं।
"हम माला भी रखते हैं, भाला भी।
हम वेद भी पढ़ते हैं, और वज्र भी उठाते हैं।
हम सनातनी हैं—
शांति हमारे मूल में है,
पर न्याय हमारे प्राण में।"
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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