अलभ्य शब्द
शब्दों के पंखों पर चढ़मैं उड़ना चाहता था नभ में,
पर हर बार स्वप्न-सी गति
छूट गई अंजाने रज में।
वे शब्द, ज्योति-रेखाएँ बन
मुझसे आगे बढ़ते जाते,
और मैं, नभ के एकाकी तारे-सा
मूक तमस में डूबे जाते।
कभी भावों का चंचल झुँड
प्रलय-वात जैसे आता है,
स्पर्श कर अनदेखे पथ से
अनागत दिशा में जाता है।
मैं नीरव लहरों-सा व्याकुल,
बाँहें फैलाए बढ़ता जाता,
पर शब्द — वे चाँदनी-छाया
हृदय-गगन से फिसल न आता।
पीड़ा की वंशी बजती है,
तानों में है मौन की ध्वनि,
भावों का मधुमय अम्बर
छुपा रहा मुझसे अपनी रजनी।
फिर भी लहरों-सी आशाएँ
हर साँझ, हर प्रभात जगे,
शब्दों की उस चुप दौड़ में
मेरे स्वर भी एक दिन लगे।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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