Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

जो त्रिविध अवस्थाओं में नहीं बंधता – वही ब्रह्म है, वही आप हैं

जो त्रिविध अवस्थाओं में नहीं बंधता – वही ब्रह्म है, वही आप हैं

लेखक: अवधेश झा

जीवन के गूढ़ प्रश्नों में एक मौलिक प्रश्न यह है कि "मैं कौन हूँ?"—यह प्रश्न न केवल आत्मबोध की ओर ले जाता है, बल्कि ब्रह्म स्थिति से परिचय भी कराता है। उपनिषदों और वेदांत के समस्त प्रयास इसी बोध के निकट घूमते हैं—ब्रह्म की खोज, जिसे जान लेने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता।


ब्रह्म और अब्रह्म की दो स्थितियाँ: जीवन में दो अवस्थाएँ निरंतर चलती रहती हैं—ब्रह्म स्थिति, जहाँ आत्मा अपने सत्य स्वरूप में स्थित होती है, और अब्रह्म स्थिति, जहाँ आत्मा माया से आवृत्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप को विस्मृत कर देती है। जब तक आत्मा ब्रह्म को नहीं जानती, तब तक उसका समस्त कर्म जन्म-मरण के बंधन में गति करता रहता है। ब्रह्म स्थिति ही मोक्ष, परमशांति और पूर्णता का मार्ग है।

इस विषय में पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, जस्टिस राजेन्द्र प्रसाद से संवाद क्रम में उन्होंने कहा— "समस्त शास्त्र यही कहते हैं कि आप ब्रह्म हैं, लेकिन जब तक आप अपने व्यवहारिक जीवन में इसे स्वीकार नहीं करते, तब तक अब्रह्म की स्थिति बनी रहती है। जब यह अनुभव और अवस्था प्राप्त होता है, तब समस्त कर्म "ब्रह्म कर्म" बन जाता है और जीवन ब्रह्म स्थिति में स्थित हो जाता है। इस संदर्भ में छांदोग्य उपनिषद (6.8.7) कहती है— "तत्त्वमसि" — तू वही ब्रह्म है। यह उद्घोष केवल एक दार्शनिक वाक्य नहीं, बल्कि आत्म-स्मरण का आह्वान है।"

ब्रह्म: अवस्थाओं से परे है; माण्डूक्य उपनिषद (7) में स्पष्ट वर्णन है:
"शान्तं शिवम् अद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः" —वह शांत, शिवस्वरूप, अद्वैत आत्मा ही जानने योग्य है, जो चतुर्थ अवस्था है—जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे। यह ‘तुरीय अवस्था’ ही ब्रह्म की स्थिति है, जहाँ न कोई द्वैत है, न बंधन—सिर्फ अस्तित्व की नित्यता है।

ब्रह्म से ही प्रकृति की उत्पत्ति होती है। जैसे बीज से वृक्ष, वृक्ष से फल, और अंततः वृक्ष पुनः उसी ब्रह्म स्वरूप बीज में लीन हो जाते हैं। उसी तरह से मिट्टी से घड़ा का निर्माण होता है और घड़ा पुनःमिट्टी में विलीन हो जाता है। इसी तरह आत्मा भी जीव भाव में, जीवन और प्रकृति से मोहित होकर आसक्ति और मोह में बंध जाती है, लेकिन पुनः ज्ञान होने पर उसी ब्रह्म में लीन हो जाना उसका स्वाभाविक धर्म हो जाता है। इस संबंध में बृहदारण्यक उपनिषद (4.4.19) कहती है: "यत्र तु तस्य त्रयाणां संनिपातो भवति तं पश्यति ब्रह्मेत्याचक्षते।"
— जहाँ ज्ञान, ध्यान और अनुभूति तीनों का समागम होता है, वहीं ब्रह्म का साक्षात्कार होता है, लेकिन यह केवल माध्यम है, साधन है, साध्य तो ब्रह्म है और ब्रह्म इन सभी से परे है।

बंधनों से मुक्ति का आह्वान कीजिए - जैसे एक अबोध बछड़ा रस्सी में उलझ कर स्वयं को और अधिक बांध लेता है, वैसे ही अज्ञानी जीव माया के बंधनों में स्वयं को और उलझा लेता है। किंतु एक ज्ञानी अर्थात बंधनमुक्त आत्मा स्वयं तो मुक्त होता ही है, दूसरे को भी मुक्त कर सकता है— वह स्वयं ब्रह्म, गुरु अथवा अन्य स्वरूप में हो सकता है; जो स्वयं में स्थित रहता है और दूसरे को भी उस स्वयं स्वरूप ब्रह्म स्थिति की ओर ले जाता है। इस तरह से, यह संसार एक खुला मैदान है— बंधनों से मुक्त होकर विचरण कीजिए। ब्रह्म न किसी अवस्था का अंग है, न किसी रूप का अधीन। वह सबका कारण होकर भी सबसे परे है। इसलिए—"ब्रह्म को जानिए, ब्रह्म स्वरूप में स्थित रहिए" —यही जीवन का परम उद्देश्य है, यही आत्म- धर्म है, यही ब्रह्म कर्म है। जो त्रिविध (सत, रज और तम) अवस्थाओं में नहीं बंधता – वही ब्रह्म है, वही आप हैं। "ब्रह्म का स्वरूप: अनुभव से परे, शुद्ध चैतन्य, नित्य और परम सत्य है"।

("लेखक अवधेश झा — ज्योतिष, योग एवं वेदांत दर्शन के प्रखर अध्येता हैं")
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ