अहिल्या:- एक स्तंभ सनातन का
वो युद्ध की नायिका भी थी
हाथ में तलवार थामी थी उसने
पर उसकी दृष्टि में
धर्म के लिए
हर क्षण एक रणभूमि था।
अहिल्या — नाम नहीं,
एक परंपरा थी
जो गूँजती रही नीम, तुलसी और दीपों के बीच,
जो बसी रही उन मंदिरों की सीढ़ियों में
जिन्हें उसने फिर से जीवन दिया।
काशी से केदार तक,
सोमनाथ से रामेश्वर तक,
जहाँ-जहाँ टूटा था विश्वास,
जहाँ खंडहरों ने पुकारा था —
वहाँ पहुँची थीं उसकी आस्था की चरणधूलियाँ।
एक रानी,
जिसने महलों से ज़्यादा
मंदिरों को अपना घर माना।
जिसके स्वप्न में शिव थे,
और जिसकी जागृत चेतना में धर्म।
वो ना केवल कुशल राजनीतिज्ञ थी,
जानती थी — ध्यान की भाषा,
दान की शक्ति,
धरती की पीड़ा,
और धर्म की नींव।
उसने शासन को सेवा बनाया,
सेवा को साधना,
और साधना को संस्कृति।
कहते हैं, इतिहास राजाओं से भरा है —
पर जब कोई अहिल्या जन्म लेती है,
तो सभ्यता को मातृ-शक्ति मिलती है।
"कमल" प्रणाम करता है उस तेजस्विनी को
जो केवल धरोहरों की संरक्षिका नहीं,
बल्कि स्वयं एक धरोहर थी —
सनातन की चुप किंतु अडिग आवाज़।
वो चली गई,
पर हर दीपस्तंभ में उसकी छाया है,
हर घंटनाद में उसकी श्रद्धा,
और हर शिखर पर उसकी आस्था।
. स्वरचित, मौलिक एवं पूर्व प्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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