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माँ — चिरस्मरणीय आलोक"

माँ — चिरस्मरणीय आलोक"

जब जीवन की साँझ उतरती,
सपनों की कलियाँ बिखरती,
तब तू — अंजुलि में दीप सजाए,
मधुर मुस्कान लिये मुसकाए।


मैं थकी पथिक, आँसू पीती,
नभ की ओर व्याकुल हो देखती,
पर तू बन छाया अमल तटों की,
मेरी सुधि में सदा ही रहती।


तेरे आँचल की शीतल छाया,
ज्यों वन-वृक्षों से बहती माया,
जिसमें थककर पंख समेटे
हर विहग निश्चिंत विश्रांति पाता।


तेरी गोदी — धरती की पूजा,
जिसमें खिलते स्वप्न-सुमन,
तेरे अधरों पर बसी वाणी,
बन जाए रुदन में भी श्रवण।


जैसे नदिया अपने तट को
चुपचाप चूमती है हर क्षण,
तू वैसे ही पीड़ा को भी
करुणा से देती मधुर स्पंदन।


तेरा त्याग — हिमगिरि-सा ऊँचा,
तेरा स्नेह — सागर की गहराई,
तेरे आँचल की वह मर्यादा,
ज्यों गंगा की निर्मल धार बहाई।


जब जग की नज़रों में गिरती,
अपनी ही दृष्टि में डरती,
तब तू — चुपचाप उठाकर मुझको,
फिर से विश्वास से भर देती।


तू नारी नहीं — तू साधना है,
तू प्रेम की परम भावना है,
तू जीवन की वह आरती है,
जिसमें हर साँस समर्पण गाता।


तू शिखा है, तू शांति है माँ,
तू ही संजीवनी गान,
तेरे बिन तो जीवन मेरा
बस एक अधूरा सा अरमान।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" 
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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