दिव्य रश्मि : राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक पुनरुत्थान की ज्वाला
लेखक: डॉ. सच्चिदानंद प्रेमी
(संरक्षक, आचार्य कुल, वर्धा | प्राप्तकर्ता : राष्ट्रीय शिक्षा सम्मान, राष्ट्रीय हिंदी सम्मान, राधाकृष्णन शिक्षा पुरस्कार एवं शताब्दी हिंदी साहित्य सम्मान | पूर्व प्राचार्य, आनंद विहार कुंज, माड़नपुर, गया)
दिव्य रश्मि पत्रिका के बारहवें स्थापना वर्ष पर जब हम पुनः इस पत्रिका की उपलब्धियों, संघर्षों और सामाजिक चेतना में इसके योगदान पर विचार करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह मात्र एक साहित्यिक प्रकाशन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक यग्य कुण्ड से प्रस्फुटित राष्ट्र के सुरक्षा , संरक्षा एवं सम्वर्धन के मानस पटल पर एक ज्वाला है जो राष्ट्र के पुनर्निर्माण एवं पुरोथान के लिए आकाश को प्रकाशित कर रहा है , जो सतत जलती आ रही है और समाज को प्रकाशमान कर रही है।
आज के दौर में जब पत्रकारिता और साहित्य का उद्देश्य प्राय: तात्कालिक लाभ, प्रचार या राजनीतिक दबावों से संचालित होता दिखाई देता है| ऐसे समय में 'दिव्य रश्मि' जैसे वैचारिक, सांस्कृतिक ,आध्यात्मिक, बैज्ञानिक एवं मनोविज्ञानिक पत्रिका का सतत प्रकाशन स्वयं में एक मिसाल है। यह पत्रिका अपने नाम के अनुरूप, एक दिव्य रश्मि बनकर तमसो माँ ज्योतिर गम्य का प्रयोग परिलक्षित कर रही है । जिस साधना, समर्पण और सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ समय आवश्यकता का पथ्यले होती है, वह इसके यशस्वी, कृतसंकल्प संपादक डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी का संघर्ष पूर्ण श्रम प्रतिपादित हो रहा है इसके लक्ष्य को परिलक्षित करता है।
मैं इस संस्था से आरंभ से ही जुड़ा हुआ हूँ और इसके हर संघर्ष, हर बाधा और हर विजय का प्रत्यक्ष साक्षी रहा हूँ। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि एक वर्षों से लेकर बारह वर्षों तक की यात्रा एक अखंड तपस्या की तरह रही है। समाज, संस्कृति, साहित्य और राष्ट्र-चेतना के प्रति यह पत्रिका एक प्रकार से यज्ञ का कार्य कर रही है, जिसमें विचारों की आहुति दी जाती है और संस्कारों की ज्योति जलती है।
आज जब देश में नयी पीढ़ी को अपनी जड़ों से काटने की साजिशें हो रही हैं, जब तथाकथित प्रगतिशीलता के नाम पर भारतीय संस्कृति, सनातन धर्म और राष्ट्रीय चेतना का उपहास उड़ाया जा रहा है, तब दिव्य रश्मि जैसी पत्रिकाएँ न केवल प्रासंगिक हो जाती हैं, बल्कि वे आवश्यकता बन जाती हैं।
प्रकाशन की चुनौतियाँ:
पत्रिका निकालना एक साधारण कार्य नहीं है। यह कोई मात्र छपाई और वितरण की प्रक्रिया नहीं है। इसके पीछे लेखकों से संपर्क करना, पत्रिका की विषयवस्तु को समकालीन बनाना, पाठकों की रुचि और वैचारिक आवश्यकता के अनुरूप लेखन सामग्री जुटाना, अर्थव्यवस्था का प्रबंधन, डाक और वितरण का प्रबंधन—ये सभी ऐसे कार्य हैं जो किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं, एक तपस्वी के लिए ही संभव हो सकते हैं।
डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी को जब भी मैं देखता हूँ, उनके चेहरे पर एक अलौकिक मुस्कान होती है। यह मुस्कान उनकी आत्मसंतुष्टि की परिचायक होती है, जो अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता और ईश्वर में आस्था का फल होती है। जिस प्रकार सूर्य बिना थके, बिना रुके, पृथ्वी को प्रकाश देता रहता है, उसी प्रकार डॉ. मिश्र जी विश्व कल्याण के अर्थ में दिव्य रश्मि ज्योति की ज्वाला में परिवर्तित करने हेतु पत्रिका रूपी यज्ञ में नित्य आहुति दे रहे हैं।
साहित्यिक योगदान और लेखक समुदाय:
दिव्य रश्मि का एक बड़ा योगदान यह भी रहा है कि इसने अनेक नवोदित लेखकों को मंच प्रदान किया है। साहित्य में नवोदित प्रतिभाओं का स्वागत करना और उन्हें प्रोत्साहित करना ही किसी पत्रिका की जीवंतता का प्रमाण है। आज जब लेखन एकांगी होता जा रहा है और वामपंथी दृष्टिकोण ने साहित्य की आत्मा को आहत किया है, तब यह पत्रिका सनातन मूल्यों, भारतीय संस्कृति और राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत साहित्य को स्थान दे रही है।
पत्रिका में लेखों का चयन भी अत्यंत विचारणीय होता है। यह केवल सजावटी भाषा और अलंकारिकता से नहीं, बल्कि विषय की गहराई और उसकी सामाजिक उपयोगिता पर आधारित होता है। लेखक जिनके लेख छपते हैं, उन्हें पत्रिका भेजना और जिनके नहीं छपते, उन्हें ससम्मान पत्र देना – यह संवेदनशीलता किसी कुशल संपादक की पहचान है।
पाठक वर्ग और सामाजिक प्रभाव:
दिव्य रश्मि का पाठक वर्ग विविध आयु, पृष्ठभूमि और रुचियों का है। यह पत्रिका छोटे गाँवों से लेकर महानगरों तक, विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक, साधु-संतों से लेकर वैज्ञानिकों तक, सबके बीच अपनी अमिट छाप छोड़ चुकी है।
मैं जब विभिन्न विद्यालयों और शैक्षणिक संस्थाओं में जाता हूँ, वहाँ छात्रों और शिक्षकों के बीच दिव्य रश्मि के लेखों पर चर्चा देखता हूँ, तो गर्व होता है कि यह पत्रिका आज एक आंदोलन बन चुकी है। यह केवल विचारों की वाहिका नहीं, बल्कि सामाजिक पुनरुत्थान का माध्यम बन चुकी है।
सनातन संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण:
आज जब भारतीयता पर प्रश्नचिह्न लगाए जा रहे हैं| जब राम और कृष्ण जैसे राष्ट्रनायकों को मिथक कहकर सनातन को अपमानित किया जा रहा है, तब दिव्य रश्मि जैसी पत्रिकाएँ नई पीढ़ी को उनके गौरवशाली इतिहास, धार्मिक परंपराओं और वैदिक मूल्यों से जोड़ने का कार्य कर रही हैं।
यह पत्रिका धर्म का प्रचार नहीं करती, बल्कि धर्म के आत्मसात की प्रेरणा देती है। यह पंथनिरपेक्षता की नहीं, समन्वय की बात करती है। यह समाज को विभाजित करने की नहीं, जोड़ने की बात करती है।
संपादकीय नेतृत्व – एक प्रेरणा:
डॉ. राकेश दत्त मिश्र जी का नेतृत्व इस पत्रिका के लिए वह धुरी है, जिसके चारों ओर पूरी व्यवस्था सुचारू रूप से संचालित होती है। उनके नेतृत्व में एक विचारधारा विकसित हुई है, जो न तो प्रतिक्रियावादी है, न ही कट्टर, बल्कि पूरी तरह संतुलित, विचारशील और व्यावहारिक है।
पत्रिका में प्रकाशित संपादकीय लेख, समाज की नब्ज पर हाथ रखने वाले विश्लेषण और प्रेरक संवाद शैली, पाठकों को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करती है।
भविष्य की ओर:
आज जब हम दिव्य रश्मि के बारह वर्षों की यात्रा को देखते हैं, तो विश्वास से कह सकते हैं कि यह पत्रिका एक युग-प्रवर्तक की भूमिका में आगे बढ़ रही है। आने वाले वर्षों में यह न केवल हिंदी पत्रकारिता, बल्कि सामाजिक जागरूकता, राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पुनरुद्धार के क्षेत्र में नयी ऊँचाइयों को छुएगी।
इस अवसर पर मैं उन सभी लेखकों, पाठकों, वितरकों, तकनीकी सहयोगियों और शुभचिंतकों को हृदय से बधाई देता हूँ, जिन्होंने इस पत्रिका को उसकी वर्तमान स्थिति तक पहुँचाने में योगदान दिया है। विशेष रूप से पत्रिका की शुरुआत से लेकर अब तक जुड़े हुए समर्पित साथियों को मेरा प्रणाम।
मैं अंत में यही कहना चाहूँगा:
"दिव्य रश्मि की यह यात्रा, न केवल साहित्यिक उत्कर्ष की है, बल्कि यह सामाजिक दायित्व, सांस्कृतिक जागरूकता और राष्ट्रीय पुनरुत्थान की एक अनुकरणीय यात्रा है। आइए, हम सब मिलकर इस ज्वाला-पथ को और व्यापक बनाएँ और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मजबूत वैचारिक नींव तैयार करें।"
जय हिन्द! जय भारत! जय सनातन!
डॉ. सच्चिदानंद प्रेमी
(संरक्षक, आचार्य कुल, वर्धा | प्राप्तकर्ता: राष्ट्रीय शिक्षा सम्मान, राष्ट्रीय हिंदी सम्मान, राधाकृष्णन शिक्षा पुरस्कार एवं शताब्दी हिंदी साहित्य सम्मान | पूर्व प्राचार्य, आनंद विहार कुंज, माड़नपुर, गया)
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