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. "प्रारब्ध की परछाइयाँ"

"प्रारब्ध की परछाइयाँ"

जीवन के पथ पर
जब सुख की चादर छिन जाती है,
हर दिशा में केवल धुंध दिखती है—
तब हम प्रश्न करते हैं:
क्यों मैं?
क्यों अब?
क्यों ऐसा?


उत्तर तुरंत नहीं मिलता,
पर शून्य की उस चुप्पी में
धीरे-धीरे एक आवाज़ उभरती है—
"यह तुम्हारा ही बीज है,
जो कभी अज्ञान में,
कभी आवेश में,
कभी संकल्प में बोया गया था।"


हमारे प्रारब्ध का वृक्ष
हमारी ही छाया है,
जो जन्म-जन्मान्तरों की कहानी कहता है,
बिना बोले।


फिर भी यह नियति अंतिम नहीं—
यह केवल एक मोड़ है
जहाँ हम
या तो रुक सकते हैं
या नई दिशा में चल सकते हैं।


कष्ट,
केवल पीड़ा नहीं देता—
वह प्रश्न भी करता है:
क्या तुम जाग चुके हो?
क्या तुम सीखने को तैयार हो?


हर आँसू
मन की ज़मीन को नम करता है,
जहाँ नया बीज
नवकर्म का, नवचेतना का
अंकुरित हो सकता है।


संघर्ष
हमें भीतर से तोड़ता नहीं,
वह भीतर छिपी शक्ति को जगा देता है—
जो शांत थी, सोई थी,
या विश्वास से दूर थी।


जब हम पीड़ा को
दंड नहीं,
शिक्षा समझने लगते हैं—
तब ही हम
धर्म-कर्म के बीच का संतुलन समझते हैं।


कर्म की कलम से
हम प्रारब्ध की रेखाओं को
पुनः रच सकते हैं—
बशर्ते हम
अतीत को स्वीकारें,
वर्तमान को साधें,
और भविष्य को संवारें।


तो मत रोओ अपने भाग्य पर,
मत भागो कठिनाइयों से—
उन्हें सहो,
सुनो,
समझो—
और बदल डालो अपने भीतर के स्वर को।


क्योंकि अंततः,
जीवन वही नहीं होता जो मिला,
बल्कि वही होता है
जो हमने उसमें गढ़ा।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" 
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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