बरसात
चाहे हो दिवा बरसात का ,चाहे हो बरसात की रात ।
रात में हो शीतल चाॅंदनी ,
दिशाऍं रहती हैं मुस्कात ।।
कृष्णपक्ष की ये रात हो ,
हो रही खूब हो बरसात ।
नभ छाए हों काले बादल ,
रौद्र रूप यह काली रात ।।
जब जन बरसात से हारा ,
छाता होता तब है सहारा ।
ग्रीष्म ताप बरसाती वर्षा ,
छाता ही दोनों का प्यारा ।।
ऊपर से हो रही है बारिश ,
नीचे जल प्लावन हो रहा ।
जीवन की दैनिक वस्तुऍं ,
जन जन मानव है ढो रहा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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