लालटेन
जबसे आए चकाचौंध के घेरे में ,फॅंसे रह गए बिजली के फेरे में ।
गुल हो जाती जब यह बिजली ,
रहना पड़ता है रात के अंधेरे में ।।
जलता जिसके दरवाजे लालटेन ,
उसी पर गाॅंव का नाज होता था ।
होता था वही गाॅंव का माननीय ,
वही ग्रामीण शीश ताज होता था ।।
आज अमीर गरीब एक हुए हैं ,
चकाचौंध में सब खिल जाते हैं ।
मिट जाता जातिगत बैर भाव ,
अमीरी-गरीबी ये मिल जाते हैं ।।
चाॅंद लुटाता शीतल चाॅंदनी ,
लालटेन दीपक टिमटिमाता है ।
अंतरतम को उजाला करता ,
स्वर्णमयी किरणें दिखाता है ।।
बिजली के इस चकाचौंध में ,
हम सब भी चौंधियाने लगे हैं ।
हम हुए आज कितने पानी में ,
स्वयं को ही आजमाने लगे हैं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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