अब तो दिन निकलते हैं
फिर रात होती है,अलार्म लगी घडी है,
दूसरों की इच्छा से-
जागती और सोती है !
कभी टिक-टिक ,कभी
ठक-ठक बोती है,
जाने क्यों दीवारों के-
आदेश ढोती है ।
खिड़कियाँ कहती हैं,
तुझे किसने मुट्ठी में रोका है,
चलती जा घडी,
ये अलार्म तो धोखा है !
घडी मुस्कुराती है,
कभी-कभी खिलखिलाती है,
लोग सोचते हैं, रोक लेंगे शायद,
वो ठहरती नही, निकल जाती है ।
उसके जाते ही आभास होता है,
कोई हँसता, कोई रोता है,
समय के साथ , समय के बाद का,
ताउम्र फैसला होता है !
अर्चना कृष्ण श्रीवास्तव
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