पढी -लिखी बहुओं सी घर आई धूप
डॉ रामकृष्ण मिश्र
पढी -लिखी बहुओं सी घर आई धूप
सास- ससुर -सी चुप अँगीठियाँ हुईं।।
अलगनी टँगे पिंजड़े का मिट्ठू राम
एक टाँग बेचारा रटता है नाम।
हरख उठे तुलसीदल परस किरन गात
भाप भरी मुह बाली बोलियाँ हुईं।।
छानी से लटक रहे धान गुच्छ पास
गौरैयो की फुदकन बढ़ा रही आश ।
उपह गये छत पर जो पसरे थे सीप
आँगन की देह मधुर बाटियाँ हुईं।।
चौखट से झाँक रही सजी- धजी कोठरी
खड़ी रही मानवती चुप- चुप ज्यों बावरी।
चिपरी के बहाने पडोसिन् का आना
पास के शिवालय की मुखर घंटियाँ हुईं।।
ढीठ नयी -नयी चढ़ी स्वयं ही अटारी
ऊष्मा की खोल रही साथ की पिटारी।
ओटे पर सिहर रही धान काी चटाई।
भावी के अंदेशे कोठियाँ हुईं।।
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