दीन हीन सी लगती आषाढ़ी शाम
डॉ रामकृष्ण मिश्र
दीन हीन सी लगती आषाढ़ी शाम
किस के द्वारे होजाएगी गुमनाम।।
चिथडों में लिपटा सा पूरा आकाश
जलदायी घन सूखे होता आभास ।
चंचल दृग देख रहीं नदियाँ समवेत
पनघट पर शायद हो जाए संग्राम।।
अनव्याही कामना उदासी का दंश
झेल रही, मरु में ज्यों मानस का हंस।
हाथों की दुर्बलता प्रश्न पूछ रही
बाजारों में कैसे हैं बिकते आम ।।
बैल बिक गये कब के खुशियों के नाम
लोहे के हरजोते के ज्यादा दाम।
फेकू इसबार पड़ा ऐसे बीमार
ढूँढ़ नहीं पायेगा लगता है काम।।
**********रामकृष्ण
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