हे पार्थ, गांडीव उठा और युद्ध कर

हे पार्थ, गांडीव उठा और युद्ध कर

रण भूमि अनुपमा अद्भुत,
पक्ष विपक्ष दोनों भाई भाई ।
रिश्ते नाते मोह बंधन,
जीवन प्रभा अथाह अकुलाई ।
कर कंपन कदम अविचल,
पर सुन कर्म चेतना शुद्ध स्वर ।
हे पार्थ, गांडीव उठा और युद्ध कर ।।


परम सौभाग्य संग्राम काल,
प्रतीक्षारत दिव्य स्वर्ग द्वार ।
पटाक्षेप मूल उर वेदना,
विस्मृत विगत प्रेम दुलार ।
अनुभूत योद्धा विराट छवि,
दूर कर सारे अंतर्द्वंद असर ।
हे पार्थ, गांडीव उठा और युद्ध कर ।।


अधर्म अनैतिकता अवसान,
रण बांकुरी दृढ़ प्रतिज्ञा ।
सत्य नित विजय भव,
युद्ध विमुखता कर्तव्य अवज्ञा ।
संकलित अनंत शौर्य ओज,
विजय अधर्म मार्ग अवरूद्ध पर ।
हे पार्थ, गांडीव उठा और युद्ध कर ।।


निष्काम कर्म प्रेरणा पुंज,
परिणाम चिंता भाव गौण ।
सहर्ष निर्वहन युद्ध संहिता ,
पाप विनाश ध्येय कोण ।
बाण चला शत्रु दल पर,
कर धर्म रक्षा हित अनिरुद्ध समर ।
हे पार्थ, गांडीव उठा और युद्ध कर ।।


महेन्द्र कुमार
(स्वरचित मौलिक रचना)
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