परमार्थी (लघु कथा)

परमार्थी

भजनलाल अपने कमरे में खाट पर पड़े पड़े आवाज दिए जा रहे हैं। अरे कोई है घर में, मुझे बड़ी प्यास लगी है, हलक सुखे जा रहा है, कोई मुझे एक ग्लास पानी तो पिला दे। आवाज देते देते उनका हलक और भी सुखे जा रहा है, पर उनकी कोई सुनने वाला नहीं है और पानी देने वाला नहीं है। उनका खुद का शरीर इतना काहिल हो गया है कि अब उसमें खाट से खुद उठकर एक ग्लास पानी लेने का भी सामर्थ्य नहीं रह गया है। वे उसी तरह खाट पर लेटे हुए प्यासे अपने अतीत के बारे में सोचने लगते हैं।
भजनलाल घनश्यामपुर गाँव के एक संपन्न किसान रहे हैं। उनकी अच्छी खासी खेती बाड़ी रही है और खुब पैदावार होता रहा है। परिवार में उनकी पत्नी श्यामा के अलावा एक पुत्र और एक पुत्री रही है। भजनलाल जी ने पुत्र पुत्री दोनों को अच्छी शिक्षा दिलाई है और दोनों की शादी संपन्न किसान घरानों में ही कर रखी है। शादी के बाद पुत्री अपने ससुराल में सुख चैन से रहती है। पुत्र भी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ शुरुआत के कुछ समय तक भजनलाल के साथ ही रहता रहा है। भजनलाल अपने गाँव में परमार्थ के लिए मशहूर रहे हैं। उनका हर किसी से निस्वार्थ मिलना और उनके सुख दुख में सहभागी होना गाँव में चर्चा का विषय रहा है। बहुत बार तो ऐसा होता रहा है कि अगर गाँव का उनका कोई पड़ोसी बहुत किसी बड़ी समस्या में उलझ गया है, तो भजनलाल अपने घर की समस्याओं की परवाह नहीं करके अपने पड़ोसी की समस्या को सुलझाने में अपना जी जान लगा देते थे। उनके इस तरह के परमार्थ के कारनामों से उनकी पत्नी श्यामा और बेटा बहू दुखी रहते थे। उनको यह पसंद नहीं था कि भजनलाल हर समय रात दिन दुसरों के मदद में लगे रहें। पर भजनलाल तो थे कि उनको दुसरों को मदद कर और उनको सुखी देख अत्यधिक आनंद मिलता था। पत्नी श्यामा तो कभी कभी उनको ताना कसती थी कि देखते हैं कि जब आपको जरूरत पड़ती है तो कितने लोग आपके मदद के लिए आते हैं। पर इन सब बातों की परवाह किये बिना भजनलाल जी आजीवन दुसरों की सेवा और परमार्थ में लगे रहे।
समय बितता गया और भजनलाल जी बृद्ध हो गये। उनकी पत्नी श्यामा भी बृद्धावस्था और रोग ग्रस्त हो जाने के कारण अब कुछ करने में सक्षम नहीं रह गई थी। नौकरी के चलते उनका पुत्र भी अपने बीबी बच्चों के साथ दूर दुसरे शहर में रहने लगा था। अब घर में बुढ़ा बुढ़ी भजनलाल जी और उनकी पत्नी श्यामा ही अपने रह गए थे। कुछ समय तक तो भजनलाल जी अपना काम स्वयं भी कर लेते थे पर अब वो भी रोगग्रस्त होकर खाट पर पड़ गए थे। पत्नी श्यामा भी बहुत मुश्किल से ही कुछ कर पाती थी। इस अवस्था में अब उनका जीवन बहुत ही कष्टप्रद हो गया था। गाँव का कोई भी पड़ोसी जिनके लिए उन्होंने अपना जवानी का जीवन समर्पित कर रखा था, अब उनसे मिलने जुलने और हाल पुछने भी नहीं आता था। बेटा बेटी को भी उन्होंने बहुत बार आग्रह किया कि कभी कभी समय निकाल कर उनके पास आया करें, पर उन्होंने ने भी अपनी असमर्थता जताई थी। एक घरेलू नौकर, जिसे भजनलाल जी ने अपनी खेती का कुछ हिस्सा दे रखा था, वह भी सदा उनलोगों की सेवा करने में असमर्थ था। वह आता, थोड़ा बहुत अपना काम निबटा कर चला जाता था। वह भी हमेशा भजनलाल जी के साथ रहने के लिए तैयार नहीं था। अब हालात ये था कि इस बृद्धावस्था में उनलोगों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था।
खाट पर लेटे लेटे अब भजनलाल जी को अपने जवानी की सारी बातें याद आ रही थी। कैसे उन्होंने अपने जीवन को केवल स्वार्थी न बनाकर परमार्थी बनाया था। उन्होंने जीवन भर दूसरे लोगों की सेवा और सुख दुख में हाथ बटाया। अब तो भजनलाल जी को अपनी पत्नी श्यामा की वो बातें भी याद आ रही थी कि देखते हैं कि जब आपको जरूरत पड़ती है तो किलने लोग आपके मदद के लिए आते हैं।
भजनलाल जी का मन प्यास और दुख से कराह उठता है। वो कहते हैं कि तुम ठीक कहती थी श्यामा। यह दूनिया जिसमें हमलोग जी रहे हैं, स्वार्थ से भरी हुई है। यहाँ हर कोई केवल करवाना चाहता है। किसी के लिए कोई करने को तैयार नहीं है। यहाँ हर कोई केवल लेना चाहता है, देना कोई नहीं चाहता है। फिर भी भगवान ने कुछ लोगों का मन ऐसा बनाया है कि वे अपने अंत समय के बारे में बिना सोचे परमार्थी होकर दूसरों के लिए किये ही जाते हैं।
जय प्रकाश कुवंर
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