तपती गर्मी
अच्छा होता किहम होते गांव में ,
पीपल की छाँव में
सड़क चाटती चारकोल
सड़क की धूल उड़ उड़ कर
आती हमारे आँगन में
हम निहारते गुलमोहर
गुलमोहर झूमता पास में
पलाश के झूमर
झर झर झरते बाग में
बहते हुए जल स्रोत
भले हीं गढ्ढे बन राह तकते
वर्षा की आश में
सूखे हुए कुंए
भले न बुझाते प्यास
पनिहारिन की घट में
देख लेते क्रूरता
तो क्या फर्क पड़ता
ग्रीष्म के ताप में
पर
अपनो से तो नहीं छले
जाते लोग
अपने से अपनो के पास में
चल मन चल
बस अपने ही गाँव में
अरविंद कुमार पाठक "निष्काम"
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