इस लजीली चाँदनी में
डॉ रामकृष्ण मिश्रइस लजीली चाँदनी में
तुम कहाँ खोयी रही
टक- टकी बाँधे तुम्हारी
आहटें गुनता रहा।।
कुछ पुरानी बाँसुरी की
तान की प्रतिकृति भली
छू गयी सी लगा मुझको
हँसी जूही की कली।।
विचारों के तंतुओं से
जाल भर बुनता रहा।।
कुंज में जैसे उगे हों
प्रेरणा के गीत नव
गा रहे से पत्र अपने
नाद मय संगीत सब।।
कल्पना के फलक पर बस
अकेला सुनता रहा।।
लग रहा संवाद का क्षण
विकलता से बह गया।
हवा का झोंका अचानक
द्वार को कुछ कह गया।।
बीज मय आखर अचीन्हे
भोर तक चुनता रहा।।
तुम कहाँ खोयी रही
टक- टकी बाँधे तुम्हारी
आहटें गुनता रहा।।
कुछ पुरानी बाँसुरी की
तान की प्रतिकृति भली
छू गयी सी लगा मुझको
हँसी जूही की कली।।
विचारों के तंतुओं से
जाल भर बुनता रहा।।
कुंज में जैसे उगे हों
प्रेरणा के गीत नव
गा रहे से पत्र अपने
नाद मय संगीत सब।।
कल्पना के फलक पर बस
अकेला सुनता रहा।।
लग रहा संवाद का क्षण
विकलता से बह गया।
हवा का झोंका अचानक
द्वार को कुछ कह गया।।
बीज मय आखर अचीन्हे
भोर तक चुनता रहा।।
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रामकृष्ण
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