मूर्खों को शुभकामना

मूर्खों को शुभकामना

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
डार्विन के वंशजों वाले मूर्खदिवस के दिन एकदम भोरमभोर में ही कोई कुंडी खटखटाने लगा। अब भला बेजान कुंडी की खटखटाहट तो अपनी चोट की छटपटाहट के बीच चीख-चिल्लाकर कहेगा नहीं कि कौन बेहूदा है उससे छेड़छाड़ करने वाला और हर जानदार के हिस्से अक्ल नाम की चीज आयी ही हो, कोई जरुरी भी तो नहीं है न ! किन्तु मुँह अन्धेरे की असामयिक बेतुकी खटखटाहट ने मुझे झकझोरकर सावधान कर दिया कि कोई न कोई उज्जड आदमी ही है कुंडी खटखटाने वाला।

मन झुँझला उठा— ये भी कोई वक्त है दरवाजे पर दस्तक देने का, वो भी इस तरीके से कि वेहोश को भी होश आ जाए या कि होशवाले का भी होश खो जाए।

आप जानते ही हैं कि 21वीं सदी का विकसित इन्सान भला ब्रह्ममुहूर्त जैसी दकियानूसी बातों के बारे में क्या जाने या कह सकते हैं कि जानने की जरुरत ही उसे क्यों है ! रात के दूसरे-तीसरे पहर तक गूगलबाबा के सौजन्य से दुनिया को मुट्ठी में दबाये रहने वाला हुशियार आदमी थकहार कर तीन-चार बजे तो चैन से या बेचैन से सोने की भूमिका बनाता है। नींद न आए तो ‘स्लीपिंग पील्स’ का सहारा लेता है। और ऐसे में कोई बेहूदा आदमी आकर दरवाजे पर घमासान मजा दे, तो क्या करेगा—बोलकर नहीं, तो कम से कम मन में ही, गालियाँ ही तो बकेका न, ’सुप्रभाती’ तो निकलने से रहा उसके मुँह से।

किन्तु दरवाजा खोलते ही वर्षों-वर्षो बाद साक्षात वटेसरभाई को खड़ा देखकर, मन-प्राण एकदम से प्रफ्फुलित हो उठा। दोनों बाहें अनायास उठ गयीं उन्हें गले लगाने को।

हमारे पुराने परिचितों को बखूबी पता है कि वटेसरभाई वर्षों पहले ही इस मन्हूँस गांव को त्याग कर कहीं चले गए थे। कुछ सिरफिरे लोग तो ये भी कहते हैं कि फलाने ने उन्हें खदेड़ दिया यहाँ से, किन्तु उस फलाने से आजतक किसी को मुलाकात नहीं हुयी। दरअसल फलाने जैसा कोई फिजीकल अपीयरेंस तो है नहीं, जो मिले-दिखे। वस यूँ ही टाईमपास के लिए जिसे जो मन, चमड़ी वाला जुबान फिसलाते रहता है। सच तो ये है कि वटेसरभाई जैसे मस्तमौला इन्सान के लिए मेरा ये गाँव माफिक-माकूल है ही नहीं। यही कारण है कि जाल-फरेब, झूठ, अकड़, दिखावे से कोसों दूर रहने वाले वटेसरभाई झोली उठाये कहीं और निकल पड़े चार गज की राममड़ैया त्याग कर। कुछ हो ही न पास में, कुछ रखने में यकीन ही न रखता हो जो, उसके लिए भला त्याग की क्या तैयारी ! त्याग-तपस्या तो हम-आपको करनी-साधनी होती है आजीवन, फिर भी मुट्ठी का मैल भी नहीं छूट पाता मरतेदम तक। वटोरते-वटोरते जिंदगी चूक जाती है, मानों सब लाद-पाथ के ले जाना है चित्रगुप्त महाराज को भेंट करने या वहाँ भी अपनी औकात दिखाने।

खैर, मैं भवजाली आदमी अकसर बहक जाया करता हूँ भाव-जाल में। कहना क्या चाहता हूँ और कहे क्या जा रहा हूँ। अतः कोशिश करुँगा अभी कि अपनी बात न कहूँ कुछ, बल्कि वटेसरभाई की बातों या कि संदेशों को आपतक पहुँचाउँ।

मेरे स्नेहिल आलिंकन से विलग होकर वटेसरभाई भीतर आ विराजे। ओसारे से आँगन तक इधर-उधर ताक-झाँक कर बोले— “लगता है तुम भी आजकल अकेले ही हो। मलकीनी मैके गयीं हैं या...?”

उनके इस मार्मिक सवाल का जवाब देने में मैं जरा हिचकिचाया। अनसुना करने की कोशिश भी की, किन्तु दुश्मन की गोली की तरह तड़ातड़ तीन बार जब एक ही तरह के सवाल दाग दिए जाएँ तो न चाहते हुए भी कुछ तो सन्तोषजनक बात कहनी ही होगी न ।

दो-चार बार खाँस-खँखारकर बोला— नहीं वटेसरभाई! मैके में तो अब कोई कुत्तो नहीं बंचा है मुँहपुराई करने को। अतः जाने का सवाल ही कहाँ है। तीन-चार दिन पहले थोड़ा गरज-बरस कर कहीं निकल गयीं हैं। गयी होंगी किसी फुफेरी-मौसेरी-चचेरी के यहाँ। दो-चार दिन में मन हल्का हो जायेगा तो लौट आयेंगी मुँह लटकाकर। ‘वन का गीदड़, जायेगा किधर...’— अपनी ही कहावत पर मैं ठठाने की कोशिश किया, किन्तु मुस्कुराहट से ज्यादा आगे न बढ़ पाया।

हाथ हिलाकर सान्त्वना देने के अन्दाज में वटेसरभाई ने कहा— “ मुर्गा-मुर्गी के लड़ाई ज्यादे दिन थोड़े चलता है बचवा ! मैके में कोई है नहीं। तुम कहीं घुमाने-फिराने, टहलाने-बहलाने ले नहीं जाते होगे, ऐसे में आँखिर बेचारी करे तो क्या! अब देखो न मेरा भी ऐसा ही संयोग है, कल रात जिस भलेमानस के यहाँ ठहरा हुआ था, वहाँ भी कुछ ऐसी ही बारदात हो गयी। पिछले दस दिनों से उसकी बीबी टंटा मचाये हुए थी कि तुम भी तिरंगा, गुटका, पानमसाला क्यों नहीं खाते...कितना बढ़िया-बढ़िया स्कीम निकाला है कम्पनी वालों ने...पड़ोसन के घर एक हजार से अधिक चाँदी के सिक्के का बच्चा इकट्ठा हो गया था, तब उसने ज्वेलरीशॉप जाकर उसके बदले दुल्हन वाला पायल खरीद लायी। कुछ पैसे घट रहे थे, सो पति के नाम उधारी खाता खोलवाकर, खुशी-खुशी घर वापस आयी, जिसकी भरपाई अब अगले कई महीनों तक सूद समेद पति करता रहेगा। आँखिर पति जैसे निरीह प्राणी का और काम ही क्या है! पेट की रोटी से क्या कम जरुरी है तन का सिंगार? पेट के भीतर भला कौन झाँकने जाता है, परन्तु नाक-कान-गला सब झाँकती हैं और ठिठोली भी करती हैं कि इसका तो निकम्मा-दरिदर भतार कुछ करता-उरता नहीं...।

...किन्तु बेचारे उस भलेमानस की सोच बीबी की सोच से बिलकुल मेल नहीं खाती। उसे झूठे दिखावे और ऐंठन से सख्त परहेज है। नतीजन भला-चंगा खुशहाल परिवार विखर गया। दोनों बच्चों को बन्दरिया की तरह दायें-बांये दबाये, सिर पर साड़ी-चोली, आबा-झाबा लादे मैके भाग गई और जाते-जाते धमकाते भी गई कि घरेलूहिंसा वाला कानून उसी के साथ है, पति के साथ नहीं...। ”

जरा ठहर कर वटेसरभाई फिर कहने लगे— “इन बम्बईया भाँड़-भेड़ुओं को और कुछ काम तो रह नहीं गया है। कला के नाम पर भँड़ैती करने से जी नहीं भरा तो भोंड़े-लफंगे विज्ञापनों का जिम्मा ले लिया। मेरी समझ में तो विज्ञापन का मतलब ही होता है झूठ। विज्ञापन के बल पर झूठ ही विकता है और बेचारा सच कहीं दुबका पड़ा रह जाता है। ‘टॉयलेटक्लीनर’ वाला पेप्सीकोला विज्ञापन के बल पर पिला-पिलाकर अँतड़ी गला-सड़ा दिया लोगों का और अपनी अतड़ी गलने लगी तो होश ठिताने आया। सौंफ-जीरा वाला शीतल शर्बत तो आर्यावर्त संस्कृति से गायब ही कर दिया इन जालसाजों ने। फैशनेबल फटी जींस, विकनी वाली अर्द्धनग्नता से जी नहीं भरा तो लीव-इन-रिलेशनसिप, प्रीवेडिंग और समलैंगिकता तक को सम्मान्य बना डाला। महान बालगंगाधर तिलक की धरती को ही गन्धा डाला । ‘व्रिटिश डायपर’ संस्थापक-पूजक संवैधानिक सिरफिरे काले कोट वालों ने भी मुहर लगाकर अपनी पीठ थपथपायी। कुल मिलाकर कहें तो भारतीय संस्कृति को मटियामेट कर दिया धूर्त-दुष्ट-मक्कारों ने। अब तुम ही सोचो जरा बबुआ ! बोरी भर फेयरलवली लगाकर भैंस कभी गोरी हो सकती है क्या? किन्तु सूअर की चर्बी बेंच दिया चिकनी गाल वालियों ने विज्ञापन कर-करके। नालों का गन्दा विषैला पानी बहाकर पवित्र नदियों को, रासायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों से पवित्र मिट्टी को, अंतरिक्षीय प्रयोग और शक्तिप्रदर्शन के पागलपन में वायुमण्डल को प्रदूषित कर दिया और अब ‘कैंटआरो’ का विज्ञापन करते नहीं अघाते। दूध, मलाई, खोआ, पिस्ता, वादाम, अखरोट, अनेकानेक मिष्टानों वाले देश में हानिकारक चॉकलेटों के विज्ञापनवाज मक्कारों को ‘जरा कुछ मीठा हो जाए’ कहते शर्म नहीं आती। वस्तु-बाजार आवश्यक है हमारे लिए, किन्तु बाजारवादी सोच कतई अच्छी नहीं हो सकती। जहर के पैकेटों में चाँदी का टिकुलीनुमा सिक्का घुसेड़कर लोगों को बरगला रहे हैं, बेवकूफ बना रहे हैं ये विज्ञापनवाज-धोखेबाज। सच में यदि दौलत की हबस अभी नहीं गयी है अरबों बटोर लेने के वावजूद, तो किसी मन्दिर के सामने कटोरा लेकर बैठ क्यों नहीं जाते ! बहुत उदार है हमारा भारतीय समाज। कटोरा भरते देर नहीं लगेगा...।‘’

वटेसरभाई की बातें अभी और चलती, किन्तु बीच में ही मैंने टोक दिया, क्योंकि देर से चुप्पी साधे, मेरा मन कुछ कहने को कुलबुला रहा था — आदमी तो जनमजात मूर्ख है वटेसरभाई ! उसे और कितना मूर्ख बनायेंगे ये विज्ञापनवाज? भगवान ने सुन्दर शरीर के साथ-साथ सोचने-विचारने के लिए बुद्धि भी दी है। यदि उसका सही दिशा में सही समय पर उपयोग न करें तो दोषी कौन है—हमहीं न? विज्ञापनवाज अपनी बुद्धि का उपयोग दौलत बटोरने में कर रहे हैं और हम अपना दौलत लुटाने में। किन्तु गौरतलब है कि अनपढ़-गंवार को मूर्ख बनाने में जरा कठिनाई होती है, परन्तु मेकाले स्कूल के पढ़ुओं को आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है, क्योंकि हमारे गुरुकुलों में जीवन की शिक्षा दी जाती थी और इन तथाकथित विद्यालयों में सिर्फ और सिर्फ ‘अविद्या’ का उपदेश मिलता है। जीवन-दर्शन, ज्ञान और अनुभव से कोई वास्ता नहीं। यहाँ दौलत बटोरने वाले रोबोर्ट बनाये जाते हैं, इन्सान नहीं।
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