मैं विष पायी नीलकंठ भी बन जाऊँगा।।
मैं विष पायी नीलकंठ भी बन जाऊँगा।।
दिशा चतुर्दिक अंधकार के दुर्विकार से
त्रस्त-अस्त सी कर्म शीलता विचलित होती।
उस महती आभा सी संस्कृति का परिरक्षण
करने को हर के आगे मैं तन जाऊँगा।।
अपना भला नहीँ सोचा, अब क्या करना
दुष्ट सपोलों के नर्तन से क्या डरना ।
जो भी चाहे जितनी भी पीड़ा दे दे
मुस्कानों की उज्ज्वलता में सन जाऊँगा।।
अपनी कोई शाख नहीं दुर्व्यसन भी नहीं
अति विशिष्ट या इच्छित कोई असन भी नहीं।
जो कर्तव्य मढे विधि ने करता रह पाऊँ
विषम अवस्था में भी बस चंदन चाहूँगा।।
रामकृष्ण
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