अब नहीं भाते, चिढ़ाते
डॉ रामकृष्ण मिश्र
अब नहीं भाते, चिढ़ातेटेसुओं के फूल।
दोपहर की चिलचिलाती
स्वयं कुपिता धूप।
तवे सी धरती दहकती
हवा भी विद्रूप।।
हरे होने लगे तीखे
बबूलों के शूल।।
चक्रवत घिरनी नचाता
पवन का आवेग
द्वार पर आकर टिकेगा
भरथरी संवेग।।
भली आँखों में भरी पर
तमतमायी धूल ।।
आपसी किशलयी बातें
गुम हुईं कब की ।
मन अचीन्हा सा अबस
आखिर सुने किसकी।।
भंगिमाओं की कथा में दृश्य सब प्रतिकूल।।
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स्वयं कुपिता धूप।
तवे सी धरती दहकती
हवा भी विद्रूप।।
हरे होने लगे तीखे
बबूलों के शूल।।
चक्रवत घिरनी नचाता
पवन का आवेग
द्वार पर आकर टिकेगा
भरथरी संवेग।।
भली आँखों में भरी पर
तमतमायी धूल ।।
आपसी किशलयी बातें
गुम हुईं कब की ।
मन अचीन्हा सा अबस
आखिर सुने किसकी।।
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