श्रीयाज्ञवल्क्य ऋषि कौन थे ??????

श्रीयाज्ञवल्क्य ऋषि कौन थे ??????

आनन्द हठिला पादरली
याज्ञवल्क्य ऋषि भारत के वैदिक काल के एक दार्शनिक ऋषि थे। जिन्हें वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों तथा उपदेष्टा आचार्यों में सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। ये महान् अध्यात्मवेत्ता, योगी, ज्ञानी, वादपटु, आत्मज ऋषि, धर्मात्मा तथा भगवान श्रीराम कथा के मुख्य प्रवक्ता थे। वे वैदिक साहित्य में शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के द्रष्टा हैं। ऋषि वाजसनि का पुत्र होने के कारण इन्हें "वाजसनेय याज्ञवल्क्य" भी कहा जाता है। ये उद्यालक आरुणी नामक आचार्य के शिष्य थे। इनको अपने काल का सर्वोपरि वैदिक ज्ञाता माना जाता है। ये सांस्कारिक व दार्शनिक समस्या के सर्वश्रेष्ठ आधिकारिक विद्वान थे जिसके निर्देश बृहदारण्यक उपनिषद व शतपथ ब्राह्मण में अनेक बार मिलते हैं। शतपथ ब्राह्मण याज्ञवल्क्य ऋषि का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य रचना है -

बृहदारण्यक उपनिषद जो बहुत महत्वपूर्ण उपनिषद है, इसी का भाग है। इनका काल लगभग १८००-७०० ई पू के बीच माना जाता है। इन ग्रंथों में इनको राजा #जनक के दरबार में हुए शास्त्रार्थ के लिए जाना जाता है। इस कारण इनका निवास #विदेह राज्य में था और इन्हें राजा जनक का संरक्षण प्राप्त था जबकि इनकी आरम्भिक शिक्षा दिक्षा गुरु उद्यालक आरुणी के निवास राज्य कुरुपांचाल में हुई थी। ऋषि यज्ञवलक्य के कुल के वंशज होने के कारण ही इनके नाम "याज्ञवल्क्य" की पुष्टि भी होती है। शास्त्रार्थ और दर्शन की परंपरा में भी इनसे पहले किसी ऋषि का नाम नहीं लिया जा सकता। इनको नेति नेति (यह नहीं, यह भी नहीं) के व्यवहार का प्रवर्तक भी कहा जाता है। मान्यतानुसार भगवती माँ #सरस्वती भी एक बार याज्ञवल्क्य ऋषि के सम्मुख प्रकट हुईं थी। इनका काल लगभग १८००-७०० ई पू के बीच माना जाता है। शुल्क यजुर्वेद प्रवर्तक, याज्ञिक सम्राट, महान दार्शनिक एवं विधिवेत्ता महर्षि याज्ञवल्क्य की जयन्ती कार्तिक शुक्ल द्वादशी को मनाई जाती है। जो हिन्दू परम्परा में ‘‘योगेश्वर द्वादशी’’ के नाम से जानी जाती है। महर्षि याज्ञवल्क्य के पिता का नाम ब्रह्मरथ (वाजसनी और देवरथ नाम से भी जाने जाते हैं) और माता का नाम देवी सुनन्दा था। पिता ब्रह्मरथ वेद-शास्त्रों के परम ज्ञाता थे व माता ऋषि सकल की पुत्री थी। महर्षि याज्ञवल्क्य यज्ञ सम्पन्न कराने में इतने निष्णात थे कि उनको याज्ञिक-सम्राट कहा जाता है। यज्ञ सम्पादन में उनकी इस सिद्ध- हस्तता के कारण ही उनका नाम ‘‘याज्ञवल्क्य’’ पड़ा।

याज्ञवल्क्य शब्द स्वयं दो शब्दों का योग है- याज्ञ और वल्क्य अर्थात् यज्ञ सम्पादन कराना जिनके लिए वस्त्र बदलने के समान सहज और सरल था। महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थीं, #मैत्रेयी और #कात्यानी। मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी। महर्षि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के मध्य अनश्वरता पर हुए प्रसिद्ध संवाद का बृहदारण्य कोपनिषद् में उल्लेख मिलता है। महर्षि याज्ञवल्क्य की दूसरी पत्नि कात्यायनी, जो ऋषि #भारद्वाज की पुत्री थीं, इनसे इनके तीन पुत्र थे - चन्द्रकान्त, महामेघ और विजय। मैत्रेयी वैदिक काल की एक विदुषी एवं ब्रह्मवादिनी स्त्री थीं। वे मित्र ऋषि की कन्या और महर्षि याज्ञवल्क्य की दूसरी पत्नी थीं। याज्ञवल्क्य की ज्येष्ठा पत्नी कात्यायनी अथवा कल्याणी मैत्रेयी से बड़ी ईर्ष्या रखती थीं। कारण यह था कि अपने गुणों के कारण इन्हें पति का स्नेह ओक्षाकृत अधिक प्राप्त होता था। पति के संन्यास लेने पर इन्होंने पति से अत्यधिक ज्ञान का भाग माँगा और अंत में से आत्मज्ञान प्राप्त करने के अनंतर, अपनी सारी संपत्ति सौत को देकर यह उनके साथ वन को चली गई। आश्वलायन गृह्यसूत्र के ब्रह्मयज्ञांगतर्पण में मैत्रेयी को सुलभा कहा गया है। एक बार राजा जनक को ब्रह्मविद्या जानने की इच्छा हुई। इसके लिए उन्होने एक शास्त्रार्थ का आयोजन किया जिसमें यह शर्त रखी गयी कि जो भी ब्रह्मविद्या का परम ज्ञाता होगा उसे स्वर्ण मण्डित सींगों वाली एक हजार गायें दी जायेंगी।

इस शास्त्रार्थ में महर्षि याज्ञवल्क्य के अलावा कोई भी भाग लेने का साहस नहीं जुटा पाया। उनसे ब्रह्मविद्या विषयक बहुत से प्रश्न पूछे गये। जिनका उन्होंने बड़ी सहजता व सटीकता से उत्तर दिया और अन्त में शास्त्रार्थ में विजयी हुए और राजा जनक के गुरूपद्भाक् रहे। इन्होने ही प्रयाग में ऋषि भारद्वाज को श्रीराम के पावन चरित्र का श्रवण कराया था। जिसका उल्लेख गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने श्रीरामचरितमानस में किया है। महर्षि याज्ञवल्क्य, उनके आध्यात्मिक गुरू एवं उनकी पत्नियों - कात्यायनी व मैत्रेयी की मूर्तियां स्थापित हैं। इसी प्रकार दक्षिण अरकोट जिले में कुड्डालोर के पास सोर्नावूर में बंगलूर शहर में एवं वाराणसी में महर्षि याज्ञवल्क्य के मन्दिर है। महर्षि याज्ञवल्क्य का हिन्दू धर्म एवं संस्कृति में अतुल्य एवं महत्वपूर्ण योगदान: महर्षि याज्ञवल्क्य शुक्ल यजुर्वेदकार रहे हैं।

शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यकोपनिषद् ईशोपनिषद, याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रतिज्ञासूत्र, योग याज्ञवल्क्य आदि ग्रन्थ महर्षि याज्ञवल्क्य के हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को अमूल्य योगदान है। भगवान सूर्यकी प्रत्यक्ष कृपा इन्हें प्राप्त थी। पुराणों में इन्हें ब्रह्मा जी का अवतार बताया गया है। श्रीमद्भागवत में आया है कि ये देवरात के पुत्र थे। महर्षि याज्ञवल्क्य के द्वारा वैदिक मन्त्रों को प्राप्त करने की रोचक कथा पुराणों में प्राप्त होती है। तदनुसार याज्ञवल्क्य वेदाचार्य महर्षि वैशम्पायन के शिष्य हुए थे। इन्हीं से उन्हें मन्त्र शक्ति तथा वेदआदि का ज्ञान प्राप्त हुआ था। ब्रह्मा के अवतार: ऐसी मान्यता है कि याज्ञवल्क्य ब्रह्मा जी के अवतार थे। यज्ञ में पत्नी सावित्री की जगह गायत्री को स्थान देने पर सावित्री ने क्रोधवश इन्हें श्राप दे दिया। इस शाप के कारण ही वे कालान्तर में याज्ञवल्क्य के रूप में चारण ऋषि के यहाँ उत्पन्न हुए।

वैशम्पायन जी से यजुर्वेद संहिता एवं ऋगवेद संहिता वाष्कल मुनि से पढ़ी। वैशम्पायन के रुष्ट हो जाने पर यजुः श्रुतियों को वमन कर दिया, तब सुरम्य मन्त्रों को अन्य ऋषियों ने तीतर बनकर ग्रहण कर लिया। तत्पश्चात् सूर्यनारायण भगवान से वेदाध्ययन किया। श्री तुलसीदास जी ने इन्हें परम विवेकी कहा।इनके वेद ज्ञान हो जाने पर लोग बड़े उत्कृष्ट प्रश्न करते थे, तब सूर्य ने कहा, "जो तुमसे अतिप्रश्न तथा वाद-विवाद करेगा, उसका सिर फट जायेगा।" शाकल्य ऋषि ने उपहास किया तो उनका सिर फट गया। अनेक संस्कृत प्रंथों से कई याज्ञवल्क्यों का विवरण मिलता है - वशिष्ठ कुल के गोत्रकार जिनको याज्ञदत्त नाम भी दिया जाता है। एक आचार्य जो व्यास की ऋक् परंपरा में से वाष्कल नामक ऋषि के शिष्य।

विष्णुपुराण में इन्हें ब्रह्मरात का पुत्र और वैशंपायन का शिष्य कहा गया है। इनका सबसे संरंक्षित जो विवरण मिलता है वो शतपथ ब्राह्मण से मिलता है। ये उद्दालक आरुणि नामक आचार्य के शिष्य थे। यहाँ पर उनको वाजसनेय भी कहा गया है। रचनाएँ और संकलन: शुक्ल #यजुर्वेद: इस संहिता में ४० अध्यायों के अन्‍तर्गत १९७५ कण्‍डि‍का जि‍न्‍हे प्रचलि‍त स्‍वरूप में मन्‍त्र के रूप में जाना जाता है। गद्यात्‍मको मन्‍त्रं यजु: एवं शेषे यजु: शब्‍द: इस प्रकार के इसके लक्षण प्राय: देखने में आते हैं। इसके प्रतिपाद्य विषय क्रमश: ये हैं- दर्शपौर्णमास इष्टि; अग्न्याधान; सोमयज्ञ; वाजपेय; राजसूय; अग्निचयन सौत्रामणी; अश्वमेघ; सर्वमेध; शिवसंकल्प उपनिषद् ; पितृयज्ञ; प्रवग्र्य यज्ञ या धर्मयज्ञ; ईशोपनिषत्। इस प्रकार यज्ञीय कर्मकांड का संपूर्ण विषय यजुर्वेद के अंतर्गत आता है। यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं। ये हिन्दू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है और अक्सर ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है - इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं। फिर भी इसे ऋग्वेद से अलग माना जाता है क्योंकि यजुर्वेद मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’' कहा जाता है। यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ॠग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।। भारत कोष पर देखें इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं।

यजुर्वेद में दो शाखा हैं: दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा। जहां ॠग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई। मतानुसार इसकी रचनाकाल १४०० से १००० ई.पू. बतायी गयी है। शतपथ ब्राह्मण: याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य शतपथ ब्राह्मण की रचना है। शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मणग्रन्थ है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसे सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है। इस ग्रंथ में 100 अध्याय हैं जो 14 कांडों में बँटे हैं। पहले दो कांडों में दर्श और पौर्णमास इष्टियों का वर्णन है। कांड 3, 4, 5 में पशुबंध और सोमयज्ञों का वर्णन है। कांड 6, 9, 8, 9 का संबंध अग्निचयन से है। इन 9 कांडों के 60 अध्याय किसी समय षटि पथ के नाम से प्रसिद्ध थे। दशम कांड अग्निरहस्य कहलाता है जिसमें अग्निचयन वाले 4 अध्यायों का रहस्य निरूपण है। कांड 6 से 10 तक में शांडिल्य को विशेष रूप से प्रमाण माना गया है। ग्यारहवें कांड का नाम संग्रह है जिसमें पूर्वर्दिष्ट कर्मकांड का संग्रह है। कांड 12, 13, 14 परिशिष्ट कहलाते हैं और उनमें फुटकर विषय हैं। सोलहवें कांड में वे अनेक आध्यात्म विषय हैं जिनके केंद्र में ब्रह्मवादी याज्ञवल्क्य का महान व्यक्तित्व प्रतिष्ठित है। उससे ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य अअपने युग के दार्शनिकों में सबसे तेजस्वी थे। मिथिला के राजा जनक उनको अपना गुरु मानते थे।

वहाँ जो ब्रह्मविद्या की परिषद बुलाई गई जिसमें कुरु, पांचाल देश के विद्वान भी सम्मिलित हुए उसमें याज्ञवल्क्य का स्थान सर्वोपरि रहा। बृहदारण्‍यक उपनिषद: बृहदारण्यक उपनिषत् शुक्ल यजुर्वेद से जुड़ा एक उपनिषद है। अद्वैत वेदांत और संन्यासनिष्ठा का प्रतिपादक है। उपनिषदों में सर्वाधिक बृहदाकार इसके ६ अध्याय, ४७ ब्राह्मण और प्रलम्बित ४३५ पदों का शांति पाठ 'ऊँ पूर्णमद:' इत्यादि है और ब्रह्मा इसकी संप्रदाय पंरपरा के प्रवर्तक हैं। यह अति प्राचीन है और इसमें जीव, ब्रह्माण्ड और ब्राह्मण (ईश्वर) के बारे में कई बाते कहीं गईं है। दार्शनिक रूप से महत्वपूर्ण इस उपनिषद पर आदि शंकराचार्य ने भी टीका लिखी थी। यह शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ का एक खंड है और इसको शतपथ ब्राह्मण के पाठ में सम्मिलित किया जाता है। यजुर्वेद के प्रसिद्ध पुरुष सूक्त के अतिरिक्त इसमें अश्वमेध, असतो मा सदगमय, नेति नेति जैसे विषय हैं। बृहदारणयकोपनिषद में याज्ञवल्क्य का यह सिद्धांत प्रतिपादित है कि ब्रह्म ही सर्वोपरि तत्व है और अमृत्व उस अक्षर ब्रह्म का स्वरूप है। इस विद्या का उपदेश याज्ञवल्क्य ने अपनी मैत्रेयी नामक प्रज्ञाशालिनी पत्नी को दिया था। शरीर त्यागने पर आत्मा की गति की व्याख्या याज्ञवल्क्य ने जनक से की।

यह भी वृहदारझयकोपनिषद का विषय है। जनक के उस बहुदक्षिण यज्ञ में एक सहस्र गौओं की दक्षिणा नियत थी जो ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य ने प्राप्त की। शांतिपर्व के मोक्षधर्म पर्व में याज्ञवल्क्य और जनक (इनका नाम दैवराति है) का अव्यय अक्षर ब्रह्तत्व के विषय में एक महत्वपूर्ण संवाद सुरक्षित है। उसमें नित्य अभयात्मक गुह्य अक्षरतत्व था वेदप्रतिपाद्य ब्रह्मतत्व का अत्यंत स्पष्ट और सुदर विवेचन है। उसके अंत में याज्ञवल्क्य ने जनक से कहा-हे राजन्, क्षेत्रज्ञ को जानकर तुम इस ज्ञान की उपासना करोगे तो तुम भी ऋर्षि हो जाओगे। कर्मपरक यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है (ज्ञानं विशिष्टं न तथाहि यज्ञा:, ज्ञानेन दुर्ग तरते न यज्ञै:)। गुरु #वैशम्पायन से विवाद: वैशम्पायन वेद व्यास के विद्वान शिष्य थे। हिन्दुओं के दो महाकाव्यों में से एक महाभारत को मानव जाति में प्रचलित करने का श्रेय उन्हीं को जाता है। पाण्डवों के पौत्र महाबलि परीक्षित के पुत्र जनमेजय को वैशम्पायन ने एक यज्ञ के दौरान यह कथा सुनाई थी। कृष्ण यजुर्वेद के प्रवर्तक भी ऋषि वैशम्पायन ही है जिन्हे उनके गुरु कृष्णद्वैपायन ने यह कार्य सौंपा था। इनके शिष्य याज्ञवल्क्य ऋषि थे जिनसे वाद विवाद होने के कारण याज्ञवल्क्य ने शुक्ल यजुर्वेद को प्रसारित किया था। गुरु आचार्य वैशम्पायन ऋषि याज्ञवल्क्य के गुरु थे जिनसे वैदिक विषय में उनका भारी मतभेद हो गया था।

महर्षि वैशम्पायन अपने शिष्य याज्ञवल्क्य से बहुत स्नेह रखते थे और इनकी भी गुरु में अनन्य श्रद्धा एवं सेवा-निष्ठा थी; किंतु दैवयोग से एक बार गुरु से इनका कुछ विवाद हो गया, जिससे गुरु रुष्ट हो गये और कहने लगे- "मैंने तुम्हें यजुर्वेद के जिन मन्त्रों का उपदेश दिया है, उन्हें तुम उगल दो।" गुरु की आज्ञा थी, मानना तो था ही। निराश हो याज्ञवल्क्य ने सारी वेद मन्त्र विद्या मूर्तरूप में उगल दी, जिन्हें वैशम्पायन जी के दूसरे अन्य शिष्यों ने 'तित्तिर' (तीतर पक्षी) बनकर श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लिया, अर्थात वे वेद मन्त्र उन्हें प्राप्त हो गये। यजुर्वेद की वही शाखा, जो तीतर बनकर ग्रहण की गयी थी, 'तैत्तिरीय शाखा' के नाम से प्रसिद्ध हुई। याज्ञवल्क्य स्मृति: याज्ञवल्क्य स्मृति धर्मशास्त्र परम्परा का एक हिन्दू धर्मशास्त्र का ग्रंथ (स्मृति) है। याज्ञवल्क्य स्मृति को अपने तरह की सबसे अच्छी एवं व्यवस्थित रचना माना जाता है। इसकी विषय-निरूपण-पद्धति अत्यंत सुग्रथित है। इसपर विरचित मिताक्षरा टीका हिंदू धर्मशास्त्र के विषय में भारतीय न्यायालयों में प्रमाण मानी जाती रही है। इसके श्लोक अनुष्टुप छंद में हैं - इसी छंद में गीता, वाल्मीकि रामायण और मनुस्मृति लिखी गई है। इसी विषय (यानि धर्मशास्त्र) पर मनुस्मृति को आधुनिक भारत में अधिक मान्यता मिली है। इसमें आचरण, व्यवहार और प्रायश्चित के तीन अलग अलग भाग हैं। एक दृष्टि से याज्ञवल्क्य स्मृति प्रसिद्ध है। इस स्मृति में 1003 श्लोक हैं। इसपर विश्वरूप कृत बालक्रीड़ा, अपरार्क कृत याज्ञवल्कीय धर्मशास्त्र निबंध और विज्ञानेश्वर कृत मिताक्ष्रा टीकाएँ प्रसिद्ध हैं। मतानुसार इसकी रचना लगभग विक्रम पूर्व पहली शदी से लेकर तीसरी शदी के बीच में हुई। स्मृति के अंत:साक्ष्य इसमें प्रमाण है। इस स्मृति का संबंध शुक्ल यजुर्वेद की परंपरा से ही था। जैसे मानव धर्मशास्त्र की रचना प्राचीन धर्मसूत्र युग की सामगीं से हुई, ऐसे ही याज्ञवल्क्य स्मृति में भी प्राचीन सामग्री का उपयोग करते हुए सामग्री को भी स्थान दिया गया। कौटिल्य अर्थशास्त्र की सामग्री से भी याक्ज्ञवल्क्य के अर्थशास्त्र का विशेष साम्य पया जाता है। इसमें तीन कांड हैं आचार, व्यवहार और प्रायश्चित। इसकी विषय-निरूपण-पद्धति अत्यंत सुग्रथित है। इसपर विरचित मिताक्षरा टीका हिंदू धर्मशास्त्र के विषय में भारतीय न्यायालयों में प्रमाण मानी जाती रही है। भागवत और विष्णु पुराण के अनुसार याज्ञवल्क्य ने सूर्य की उपासना की थी और सूर्यऋयी विद्या एवं प्रणावत्मक अक्षर तत्व इन दोनों की एकता यही उनके दर्शन का मूल सूत्र था। विराट् विश्व में जो सहस्रात्मक सूर्य है उसी महान आदित्य की एक कला या अक्षर प्रणव रूप से मानव के कंद्र की संचालक गतिशक्ति है। याज्ञवल्क्य का यह अध्यात्म दर्शन अति महत्वपूर्ण है। एक व्यक्तित्व का पाजुष यज्ञ सदा विराट यज्ञ के साथ मिला रहता है। इससे मानव भी अमृत का ही एक अंश है। यही याज्ञवल्क्य का अयातयाम अर्थात् कभी बासी न पड़नेवाला ज्ञान है। भागवत के अनुसार याज्ञवल्क्य ने शुक्ल यजुर्वेद की 15 शाखाओं को जन्म दिया, जो वाजसनेय शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। वे ही उनके शिष्यों द्वारा काणव, माध्यंदिनीय आदि शखाओं के रूप में पसिद्ध हुई। याज्ञवल्क्य ब्रह्मणकालीन प्राचीन आचार्य थे जो वैशंपायन, शाकटायनआदि की परंपरा में हुए और कात्यायन ने एक वार्तिक में उन ऋर्षियों को तुल्यकाल या समकालीन कहा है।
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