सच को सच कहने से डरते हैं

सच को सच कहने से डरते हैं|

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
सच को सच कहने से डरते हैं, रिश्ता कोई टूट न जाए,
सच का किस्सा सच सुनकर, अपना कोई रूठ न जाए।
अक्सर देखा हमने सबको, रिश्ते टिके स्वार्थ की नींव,
भरे हुए हैं झूठ के गागर, सच सुनकर कोई फूट न जाए।


कभी कभी तो सच झूठ में, हम खुद ही फँस जाते हैं,
सम्बन्धों के द्वार ठिठक, झूठ को ही सच कह जाते हैं।
मन को भ्रमित होते देखा, जब लगे दांव पर अपनें हों,
अपनों के अपनेपन में तब, सच को हम बिसरा जाते हैं।


बन्दूकों के साये में हम, अक्सर सच बिसरा देते हैं,
गुण्डे और मवाली को, झुककर सलाम बजा देते हैं।
हमें पता था वही है शामिल, निर्दोषों की हत्या में,
निज परिवार हितों के आगे, सच को झूठ बता देते हैं।


रिश्तों का रिश्ता रह जाये, हम ही थोड़ा झुक जाते हैं,
बिना किसी गलती के भी, हम ही थोड़ा नम जाते हैं।
जिनको हमने अपना समझा, गलती को अनदेखा रखा,
वो महत्व रिश्तों का समझें, हम ही अहम् भुला जाते हैं।


सम्बन्धों का महत्व समझकर, कुछ की ग़लती को बिसराया,
हमारी हमदर्दी को कुछ ने, अपनी ताकत अहसास कराया।
अपने घर को अपनों ने लूटा, इस सच का सच हमें पता था,
ग़ैर खड़े थे कुछ अपने संग, अपनों के हित उनको ठुकराया।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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