विधवा फिर से विधवा हो गयी ।
फिर से गम में गुमसुम हो गयी।।एक बार लड़कर समाज से ,
जवानी में वैधव्य को तोड़ा था ।
इस समाज ने इस दुखियारी का,
तब कुछ भी नहीं तो छोड़ा था ।।
विधवा होकर शादी कर ली,
उसने कितना बड़ा पाप किया।
नहीं लिया स्वीकृति समाज से,
अपने जीवन का निर्णय आप लिया।।
लांछन लगना, ताना सहना,
उसको सब स्वीकार नहीं था।
पूरी जवानी विधवा कहलाना,
उसको यह स्वीकार नहीं था ।।
अपने मन के साथी के संग ,
फिर से अपना ब्याह किया ।
पुनः सुहागन होकर उसने ,
अपना जीवन निखार लिया।।
जवानी में विधवा जीवन,
क्या होता है बस वही जाने।
जिसके उपर यह बितता है,
उसको छोड़ कोई भी नही पहचाने।।
विधवा विवाह का जीवन जी कर,
सुख से यौवन पार किया ।
उसके जीवनसाथी ने भी,
उसका जीवन संभाल लिया ।।
मृत्यु तो सबको आनी है ,
उम्र का केवल फेरा है ।
एक जवानी एक बुढ़ापा,
एक उजाला तो दुसरा अंधेरा है।।
अब जीवन के अंतिम पड़ाव पर,
साथी पहले चला गया ।
इस वैधव्य में दुख तब से कम है,
यही जीवन है, जो बीत रहा ।।
जिस समाज की हम बातें करते,
वह कभी आंसू पोंछने नहीं आता है।
तरह तरह की बातें करता,
केवल हजारों लांछने लगाता है ।।
जय प्रकाश कुवंर
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