जप-तप में क्या धरा हुआ है, मरना सीखो!

जप-तप में क्या धरा हुआ है, मरना सीखो!

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
जप-तप में क्या धरा हुआ है, मरना सीखो!
प्रत्यय विचित्र कितना भी हो यह भासमान,
तत्त्वदर्शियों का आलोकित आप्तवचन है ।
सिक्का तो है एक उसी के द्विविध पार्श्व हैं ,
मरण अगर है पट, तो उसका चित जीवन है।
प्रश्न-गर्भ में ही उत्तर है, पढ़ना सीखो!
मरण एक उत्सव-जैसा, यदि जीना आए,
मर कर भी जीता है जीनेवाला मानव ।
घुट -घुट कर जीनेवाले पल-पल मरते हैं,
प्राण-देवता का करते हैं कुत्सित परिभव।
भव-खाण्डव में इन्द्रप्रस्थ को, गढ़ना सीखो!
भोक्ता बन कर चखे बहुत खट्टे-मीठे फल,
किंतु नहीं अफराया अब तक भी पागल मन।
बहुत हो चुका हैअभिनय, अब भी तो छोड़ो,
द्रष्टृभाव से देखो माया का भव - नर्त्तन।
अपनी किस्मत अपने हाथों, लिखना सीखो!
मर्मर-स्वर में भव-कानन का पत्ता-पत्ता
सुना रहा है सृष्टि-मर्म की अनुपम गाथा।
गुनते हैं ज्ञानी, मस्ती में सुनते साधक ,
पृथग्जनों के कान भोथरे, उन्मद माथा। 
विश्वात्मा से मानवता को, मढ़ना सीखो!
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