महुआ

महुआ

श्री मार्कण्डेय शारदेय
महक रही वन-डगर मक्खियाँ मदमाती इठलातीं गातीं।
मादकता मन को फुसलाकर नाकद्वार से भीतर आती।
आँखें देख स्वर्णकलशी को केन्द्रित हो टकटकी लगातीं।
कान खड़े हो गए मधुर ध्वनि- भद्-भद्, टप्-टप् कहाँ सुनाती।
गर्दन ऊपर उठी हवा मुस्काई दौड़ी-दौड़ी आई।
सिर पर दो-दो थाप पड़ी, मुँह में आ रसना से टकराई।
झूम उठे तन-मन धन पाकर दे आए अपनी सुध-बुध सब।
हौले-हौले बुला रहा है, बोलो बोलो, आओगे कब।
कब का उत्तर जब तब में दे अपने को औ उसे दुखाऊँ।
नहीं नहीं यों नहीं करूँगा, नेह-छोह पर बलि-बलि जाऊँ।
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