ताम्बूल यानी पान


ताम्बूल यानी पान

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
ताम्बूल-चर्वण का व्यसन, मत पूछिए, बड़ा जी का जंजाल है। व्यसन ही होना हो; तो विद्या का हो, धर्म या भक्ति का हो, जनसेवा का हो, स्वाध्याय का हो। ऐसे व्यसन निस्संदेह मंगलकारी हैं, सुव्यसन हैं। जहाँ तक ताम्बूल का सवाल है; सिर्फ ताम्बूल हो तो कोई बात नहीं, किंतु इसके सहचर के रूप में तम्बाकू किंवा जर्दा लोगों की नजर में गड़ता है, खासकर सुसभ्य लोगों की नजर में। इधर चिकित्सा-क्षेत्र वालों ने जो तम्बाकू को सांघातिक करार दे दिया है, सरकारी स्तर से भी इस पर पाबंदी लगा दी गई है और इसके सेवन की रोकथाम की बाबत धुआँधार प्रचार का सिलसिला चल पड़ा है, तो समझिए, मेरे-जैसे ताम्बूल-जर्दा के व्यसनी की जान पर आफत ही आ गई है। पान तो जान का साथी है, छूटने वाला नहीं--चाहे लाख पाबंदियाँ हों।
कल एक मित्र बड़ा ही मजेदार वाक़या सुना रहे थे। कोई मामूली स्वास्थ्य-संबन्धी समस्या लेकर डाक्टर के पास गए, तो वह पान-जर्दा के सेवन की सांघातिकता पर लेक्चर पिलाने लगा, जब कि वह साफ लक्ष्य कर रहे थे कि साला डाक्टर खुद पान की गिलौरियाँ मुँह में दबाए हुआ था और उसके मुँह से जाफरानी जर्दे की सुबास आ रही थी। यही दुनिया है--विडम्बनाओं का मज्मूआ।
ताम्बूल का सेवन मैं कोई नया नहीं कर रहा। जब पटना विश्वविख्यात में बी •ए (ऑनर्स) का छात्र था और जैक्सन होस्टल में रहता था, तभी से पान-जर्दे की लत पड़ी हुई है। पटना कालेज के सामने ही, उन दिनों, एक बड़ा ही शानदार पान का स्टॉल था, फलतः ताम्बूल-सेवन की भरपूर सुविधा थी।
प्राच्यविदों और विश्रुत भाषावैज्ञानिकों के गहन-सूक्ष्म अध्ययन का जैसा प्रामाणिक निष्कर्ष है,'ताम्बूल' शब्द मूलतः औस्ट्रिक किंवा मोन ख्मेर प्रजातीय वर्ग का शब्द है, जो कालांतर में संस्कृतीकृत होकर हमारे शब्द-भाण्डार में बाकायदा सन्निहित हो गया। 'ताम्बूल ' का पर्याय नागवल्ली (पान की लता)और नागपत्र -जैसे शब्दों का भी स्पष्ट इंगित यही है कि ताम्बूल मूलतः आर्येतर नाग जाति का प्रदेय है।
ताम्बूल अपने आप में अधुना प्रभूत मांगलिक है। पूजोपचार में भी --"पत्रं पुष्पं फलं तोय॔ (गीता)"--पत्र के लिए ताम्बूल ही व्यवहृत होता है। हमारी संस्कृति में जैसी ताम्बूल की मांगलिकता है, वैसी ही 'सिन्दूर' की भी है और तारीफ यह है कि सिन्दूर भी आर्येतर नाग जाति की ही देन है,जो कालांतर में न केवल संस्कृत शब्द-भाण्डार में शामिल ही हो गया, बल्कि सिन्दूर के बिना कोई भी मांगलिक विधान संपन्न नहीं होता। सिन्दूर का महत्त्व तो हिन्दू संस्कारों में इतना है कि सिन्दूर-दान के बिना विवाह-विधि पूर्ण ही नहीं हो सकती। सिन्दूर के पर्याय 'नागसंभव 'और 'नागचूर्ण' भी ताम्बूल के तत्सदृश नागजातीय स्रोत के उपोद्बलक(corroborator) है।
वैदिक वाङ्मय में सिन्दूर शब्द कहीं नहीं मिलता। आग्नेय (Astric)प्रजाति के लोग देवता के सामने बलिदान किए गए पशु का रक्त ललाट में लगाना शुभ मानते थे। वही रिवाज सिन्दूर लगाने में बदल गया।
'दिनकर 'जी ने 'संस्कृति के चार अध्याय 'में सुनीति कुमार चटर्जी तथा अनेक परम मान्य भाषावैज्ञानिकों के प्रामाण्य से इस विषय का विशद विवेचन किया है। सुरेन्द्र मोहन भट्टाचार्य के 'पुरोहित-दर्पण ' में स्पष्ट विवेचन है कि सिन्दूर का आचार भी आर्यों ने आर्येतर जाति से ग्रहण किया था। सिन्दूर का न तो कोई वैदिक नाम है और न ही सिन्दूर-दान का कोई मन्त्र। सिन्दूर मूलतः नाग लोगों की वस्तु है। उसका नाम 'नागगर्भ ',नागसंभव इसी तथ्य की सुदृढ पुष्टि है। डॉ.हजारी प्रसाद द्विवेदी का भी यही निर्भ्रान्त मत है ('अशोक के फूल '-पृ 63 )।
ताम्बूल के विषय में भी डॉ•हजारी प्रसाद द्विवेदी का तद्वत् ही मत है--"ताम्बूल आग्नेय किंवा मोन ख्मेर श्रेणी की भाषा के किसी शब्द का संस्कृत रूप है। ताम्बूल को परवर्ती हिन्दू धर्म में और शिष्टाचार में जो महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, वह सर्वविदित है (कल्पलता, पृ •61 )।"
पान का बीड़ा सम्मान का भी प्रतीक है। संस्कृत नैषधीयचरितम्-जैसे महाकाव्य के रचयिता स्वनामधन्य महाकवि श्रीहर्ष, जो परम विद्वान् महाकवि होने के साथ ही एक महान् योगी भी थे और जिन्हों ने चिन्तामणि मन्त्र की सिद्धि कर त्रिपुरा देवी का साक्षात्कार प्राप्त कर उनके द्वारा अलौकिक मनीषा का वरदान प्राप्त किया था, उन्हों ने नैषधीय काव्य के 22 वें सर्ग के अन्तिम छन्द में लिखा है कि कान्यकुब्जेश्वर के द्वारा उन्हें पान का बीड़ा और आसन प्राप्त हुआ करता था --"ताम्बूलद्वयं आसनं च लभते कान्यकुब्जेश्वरात्।"
बजाए ताम्बूल 'पान' शब्द जनसाधारण में समधिक प्रचलित है। 'पान ' शब्द 'पर्ण 'का तद्भव है, जिसके रूप-विकास की भाषावैज्ञानिक प्रक्रिया है--पर्ण >पण्ण >पाण >पान। हिन्दी की अपनी खूबी है कि 'पर्ण 'जो तत्सम रूप में पत्र (पत्ता)-मात्र का वाचक है,,उसे तद्भव 'पान 'के रूप में अर्थ-विशेष ताम्बूल के अर्थ में स्थापित कर दिया और अंततः 'पान' ताम्बूल के अर्थ में रूढ़ हो गया। हर जीवन्त भाषा में यह खस्लत होती है और हिन्दी में है--यह बात हिंदी की अभ्यूर्जित प्राणवत्ता का प्रमाण है। न केवल हिंदी, बल्कि उर्दू में भी पान शब्द का ही प्रयोग अभिगृहीत है। देखिए, उर्दू के नामवर शायर 'जौक 'ने क्या ही खूब फरमाया है--
"देखना ऐ 'जौक 'होंगे आज फिर लाखों के खूँ।
फिर जमाया उसने, लाले लब पे लाखा पान का। ।"
एक तो होठ खुद लाल हैं, उन पर पान का लाखा (सं-लाक्षा >लाखा =लाह) लाखों आशिकों की जान पर आ बनी है।
हिंदी में रीतिकाल के मूर्धन्य कवि बिहारी का भी कोई जवाब नहीं --
"खरी लसति गोरैं गरैं धँसति पान की पीक।
मनौ गुलूबंद लाल की, लाल, लाल द्युति-लीक ।।"
नायक की रूचि बढ़ाने के लिए सखी नायिका की स्वच्छ गुराई की प्रशंसा नायक से करती हुई कहती है--"हे लाल, उसके गोरे गले में धँसती हुई अर्थात् पान की पीक अतिशय शोभा देती है, मानो गुलूबंद (गले में पहनने का स्वर्ण आभूषण, कण्ठी )की लाल झलक की लाल रेखा (लीक)हो। "
किंबहुना, भगवत्पाद शङ्कराचार्य अपनी 'सौन्दर्यलहरी 'में जगदम्बा के असमोर्ध्व सौन्दर्य का वर्णन करते हुए उनके मुख में ताम्बूल की छवि का ललित निर्देश करना नहीं भूले हैं--
" मुखे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला।
ललाटे काश्मीरं विलसद्गले मौक्तिकलता। ।
स्फुरत्काञ्चीशाटी पृथुकटितटे हाटकमयी।
नमामस्त्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम्। ।" देखिए, ताम्बूल की भी क्या किस्मत है कि वह जगज्जननी के मुख में भी स्थान ग्रहण करता है।
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