गोवा विधर्मियो का नहीं बल्कि सनातन हिन्दू धर्म का केंद्र है यहाँ कई प्राचीन मन्दिर विदमान है जैसे महालसा नारायणी मंदिर और शांता दुर्गा मन्दिर |

गोवा विधर्मियो का नहीं बल्कि सनातन हिन्दू धर्म का केंद्र है यहाँ कई प्राचीन मन्दिर विदमान है जैसे महालसा नारायणी मंदिर और शांता दुर्गा मन्दिर |

गोमांतक पर्वत का उल्लेख महाभारत में भी है। भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका पहुंचने से पहले यहां भी विश्राम किया था। यहां उनकी भेंट भगवान परशुराम से हुई थी। उन्होंने भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र भेंट किया था।

यहां बहुत सारे प्राचिन मंदिर होने के कारण इसे कोंकण काशी कहा जाता था।

कली काल में तीसरी सदी ईसा पूर्व यहाँ मौर्य वंश के शासन की स्थापना हुई थी।

बाद में पहली सदी के शुरुआत में इस पर कोल्हापुर के सातवाहन वंश के शासकों का अधिकार स्थापित हुआ।

फिर बादामी के चालुक्य शासकों ने इसपर 580 इसवी से 750 इसवी तक राज किया।

इसके बाद के सालों में इस पर कई अलग अलग शासकों ने अधिकार किया।

1312 ईस्वी में गोवा पहली बार दिल्ली सल्तनत के अधीन हुआ लेकिन उन्हें विजयनगर के शासक हरिहर प्रथम द्वारा वहाँ से खदेड़ दिया गया। अगले सौ सालों तक विजयनगर के शासकों ने यहाँ शासन किया ।

1469 में गुलबर्ग के बहामी सुल्तान द्वारा फिर से दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बनाया गया।

बहामी शासकों के पतन के बाद बीजापुर के आदिल शाह का यहाँ कब्जा हुआ जिसने गोअ-वेल्हा को अपनी दूसरी राजधानी बनाई।

अंग्रेजों या ब्रिटिश के पहले भारत पर पुर्तगालियों की काली दृष्टि पड़ी।

1498 में वास्को डी गामा यहाँ आनेवाला पहला युरोपिय यात्री बना जो समुद्र के रास्ते यहाँ आया था। उसके इस सफल अभियान ने युरोप की अन्य शक्तियों को भारत पहुँचने के लिये दूसरे समुद्री रास्तों की तलाश के लिये प्रेरित किया क्योंकि तुर्कों द्वारा पारंपरिक स्थल मार्गों को बंद कर दिया गया था।

आदिलशाह के राज में हिन्दुओं के साथ अत्याचार हो रहा था। इससे त्रस्त गोआ के हिन्दुओं ने होनावर के राजा से मदद मांगी। उन्होंने अपने सेनापति तिमोजा को यह कार्य दिया।

टीमोजा को लगा कि यह कार्य वह अकेले नहीं कर सकता। इसलिए उसने पुर्तगालियों के बेड़े से मदद मांगी। उसे लगा था कि गोवा को स्वतंत्र करा कर वह पुर्तगालियों को कुछ मानधन दे कर विदा कर देंगे।

1510 में पुर्तगाली नौसेना द्वारा तत्कालीन स्थानीय मुगल राजा को पराजित कर पुर्तगालियों ने यहाँ के कुछ क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित किया गया।

गोआ की समृद्धि देखकर उन्होंने वापस जाने का विचार छोड़ दिया। तीमोज़ा को भगा कर उन्होंने मेलराज को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। इस तरह गोआ के लंबे अंधेरे दासत्व के काल की शुरुवात हुई। इस काल खंड में धर्म का ह्रास हुआ और सामान्य जन पर भयंकर अमानवीय अत्याचार हुए। जनता त्राहि त्राहि कर उठी।

संभाजी ने एक बार गोवा को मुक्त कराने को इस ओर कूच भी किया था। पर उसी समय अन्य ओर से मुगलों का आक्रमण हुआ और उसे वापस लौटना पड़ा। गोआ के लिए यह बहुत दुर्भाग्यशाली क्षण रहा।

गोवन इंक्विज़िशन या गोआ धर्म समीक्षण के रूप में तो अमानवीयता की पराकाष्ठा हुईं। उन अत्याचारों और उत्पीड़न की गाथाओं को देख सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते है और मन चित्कार कर उठता है। प्राचीन मंदिरों को नष्ट किया गया।

भारत ने 1947 में अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त की, भारत ने अनुरोध किया कि भारतीय उपमहाद्वीप में पुर्तगाली प्रदेशों को भारत को सौंप दिया जाए।किंतु पुर्तगाल ने बातचीत करना अस्वीकार कर दिया। ऐसे में 18 दिसंबर 1961 को ऑपरेशन विजय की कार्रवाई शुरू हुई। भारतीय सैनिकों ने गोवा में प्रवेश किया और युद्ध शुरू हुआ। भारतीय सेना ने गोवा बॉर्डर में जैसे ही इंट्री की उसके तुरंत बाद शुरू हुई दोनों तरफ से फायरिंग और बमबारी। भारतीय सेना के सामने 6000 पुर्तगाली टिक नहीं पाए। भारतीय सेना ने जमीनी, समुद्री और हवाई हमले किये। पुर्तगाली बंकरों को तबाह कर दिया गया। भारतीय वायुसेना ने डाबोलिम हवाई पट्टी पर बमबारी की।

पुर्तगालियों को उम्मीद नहीं थी कि शांतिप्रिय भारत उन पर हमला भी कर सकता है। लेकिन जब पुर्तगाली प्यार और समझाने से नहीं माने तो भारत को उग्र रूप धारण करना पड़ा। भारत की बमबारी के बीच दो पुर्तगाली विमान भागने में कामयाब रहे। लेकिन सिर्फ दो विमान में सभी पुर्तगाली का आना नामुमकिन था। परिणाम पुर्तगालियों को भारतीय सेना का सामना करना पड़ा। अपनी हार देखते हुए पुर्तगाली सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने सरेंडर कर दिया। 36 घंटे की बमबारी को पुर्तगाली सह नहीं पाए और उनके गर्वनर जनरल वसालो इ सिल्वा ने भारतीय सेना प्रमुख पीएन थापर के सामने सरेंडर कर दिया।

इस तरह से 19 दिसंबर 1961को भारतीय सेना का ऑपरेशन विजय सफल हुआ और गोवा का भारत में विलय हो गया।

30 मई 1987 को गोवा को अलग राज्य का दर्जा दिया गया तथा गोवा भारत का 26 वाँ राज्य बना।

1000 साल पहले गोवा "कोंकण काशी" के नाम से जाना जाता था। हालाँकि पुर्तगाली लोगों ने यहाँ के संस्कृति का नामोनिशान मिटाने के लिए बहुत प्रयास किए लेकिन यहाँ की मूल संस्कृति इतनी मजबूत थी की धर्मांतरण के बाद भी वो मिट नहीं पाई।

गोवा विधर्मियो का नहीं बल्कि सनातन हिन्दू धर्म का केंद्र है यहाँ कई प्राचीन मन्दिर विदमान है जैसे महालसा नारायणी मंदिर और शांता दुर्गा मन्दिर |
महालसा नारायणी मंदिर एक हिंदू मंदिर है जो हिंदू देवी महालसा को समर्पित है और यह भारतीय राज्य गोवा के मर्दोल गांव में स्थित है।
म्हालसा देवी से सम्बंधित दंतकथाएं

मंदिर के पुरोहितजी श्री मदन जी के अनुसार, अनेक वर्ष पूर्व देवी वायु के रूप में गोमान्तक आयी थीं। विराजमान होने के लिए उन्होंने उपयुक्त स्थान की खोज आरम्भ की। अंत में वे वरण्यपुरम में स्थायी हो गयीं। वहां के लोगों ने उन्हें पेयजल की कमी के विषय में जानकारी दी। तब देवी ने अपने पैर के अंगूठे से धरती को भेदकर एक सरोवर की रचना की, जहां से पेयजल का सोता फूट पड़ा।

उस स्थान का नाम पड़ा, नुपुर तीर्थ। नुपुर देवी के चरणों के आभूषण का नाम है। देवी के यहाँ विराजमान होते ही उनके लिए एक मंदिर की रचना हुई। समीप ही लेटराइट (लोह खनिज) की शिलाओं द्वारा एक अन्य विशाल जलकुंड की भी संरचना की गयी। मेरे अनुमान से ये दोनों जलकुंड धरती के भीतर एक ही जलस्त्रोत से जुड़े हुए हैं। यह स्थान वरण्यपुरम के सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु बन गया था जो साथ ही साथ, एक प्रमुख व विशाल व्यापारिक केंद्र भी बना।
सागर मंथन की कथा

म्हालसा नारायणी का सम्बन्ध सागर मंथन की पौराणिक कथा से भी है। भगवान विष्णु ने सागर मंथन से प्राप्त अमृत का वितरण करने के लिए मोहिनी अवतार धारण किया था। अमृत का पान करने के लिए स्वरभानु नामक एक असुर भी देवताओं की पंक्ति में कपट से बैठ गया था। भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उस असुर के दो भाग कर दिए थे। असुर का सर राहु कहलाया तथा उसके धड़ को केतु कहा गया। भगवान विष्णु ने मोहिनी के रूप में राहु का पीछा किया। म्हालसा नामक पहाड़ी पर जाकर मोहिनी ने राहु का वध किया तथा उसके ऊपर खड़ी हो गयी। भगवान विष्णु का यही अवतार म्हालसा नारायणी के रूप में अमर हो गया। उन्हें राहु मर्दिनी भी कहा जाता है। यद्यपि मुझे यह जानकारी नहीं मिल पायी कि क्या राहु से सम्बंधित कोई धार्मिक अनुष्ठान का यहाँ आयोजन किया जाता है।

अन्य पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी म्हालसा मल्हारी मार्तंड अर्थात् खंडोबा की पत्नी है। खंडोबा भगवान शिव के ही एक रूप हैं जिन्हें देश के पश्चिमी भागों में बड़ी श्रद्धा से पूजा जाता है। म्हालसा नारायणी मंदिर से कुछ ही दूरी पर मल्हारी मार्तंड का मंदिर भी है। कदाचित मल्हारी मार्तंड का यह मंदिर पूर्वकालीन म्हालसा नारायणी मंदिर परिसर का ही एक भाग रहा होगा। एक प्रकार से देखा जाए तो यह कथा पहली कथा से असम्बद्ध नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान शिव मोहिनी पर मोहित हो गए थे। इसी कारण उन्होंने खंडोबा का मानवी अवतार ग्रहण किया था ताकि वे म्हालसा से विवाह कर सकें।

एक अन्य दंतकथा के अनुसार म्हालसा देवी पार्वती का ही एक रूप है। मणि एवं मल्ला नामक असुरों का वध करने के लिए भगवान शिव ने भैरव का तथा देवी पार्वती ने म्हालसा का अवतार ग्रहण किया था।
वेर्णा का म्हालसा नारायणी मंदिर

आज मैंने वेर्णा के म्हालसा मंदिर के दर्शन की योजना बनाई है। इसके परिसर व मंदिर का इन्ही दिनों उसी स्थान पर पुनर्निर्माण किया गया है, जहां वह पूर्व में स्थित था। आज वेर्णा गोवा का आद्यौगिक जिला बन चुका है। उसमें विभिन्न प्रकार के अनेक कारखाने एवं कार्यालय हैं। यहाँ तक कि, जब मैं सर्वप्रथम गोवा आयी थी, मेरा कार्यालय भी वेर्णा में ही था। वह भी इस मंदिर के समीप। किन्तु इस मंदिर के दर्शन की योजना को साकार होने में सात वर्ष व्यतीत हो गए। एक कहावत भी है कि आप देवी के मंदिर तभी जा सकते हैं, जब देवी स्वयं ऐसा चाहे।

श्री शांतादुर्गा मंदिर: पठानों ने चुराई मूर्ति, पुर्तगालियों ने तोड़ा… माँ दुर्गा के शांत स्वरूप को छत्रपति शिवाजी के पोते का फिर मिला साथ

श्री शांतादुर्गा देवी के मूल मंदिर को गोवा में पुर्तगालियों के शासनकाल में 1566 में नष्ट कर दिया गया। मराठा शासक छत्रपति साहू जी महाराज ने फिर इसकी स्थापना की। देवी की मूल प्रतिमा को पठान चुरा कर ले गए थे, जिसे बाद में...

आज हम जिसे गोवा के नाम से जानते हैं, उसका त्रेतायुगीन इतिहास हमारी वर्तमान परिभाषाओं से कहीं अधिक समृद्ध और सुसांस्कृतिक रहा है। पौराणिक समय से ही गोवा सनातन के प्रमुख स्थानों में से एक था। हालाँकि समय के साथ गोमंतक या गोपपुरी को गोवा कहा जाने लगा लेकिन आज भी यहाँ कई ऐसे प्राचीन मंदिर हैं, जो गोवा के सनातन इतिहास की गाथा कहते हैं। गोवा के इन्हीं मंदिरों में से एक है श्री शांतादुर्गा मंदिर, जो गोवा की राजधानी पणजी से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। श्री शांतादुर्गा, माता पार्वती का ही रूप हैं, जिन्होंने महादेव और भगवान विष्णु के बीच छिड़े भयानक युद्ध को शांत करने के लिए अवतार लिया था।
मंदिर का इतिहास

वैसे तो भगवान विष्णु और भोलेनाथ एक दूसरे को ही अपना ईश्वर मानते हैं लेकिन आदिकाल में एक बार दोनों के बीच भयानक युद्ध प्रारंभ हो गया। ब्रह्मांड के पालक और संहारक के बीच शुरू हुए इस भीषण युद्ध से सम्पूर्ण संसार पर अनचाहा संकट आ पड़ा। इस युद्ध को लगातार बढ़ता हुआ देख ब्रह्मा जी ने आदिमाया दुर्गा अथवा माता पार्वती से प्रार्थना की।

ब्रह्मा जी की प्रार्थना सुनकर सम्पूर्ण पृथ्वी को इस युद्ध के दुष्परिणाम से बचाने के लिए माता पार्वती ने शांतादुर्गा का अवतार लिया। श्री शांतादुर्गा ने महादेव को अपने एक हाथ में पकड़ लिया और भगवान विष्णु को दूसरे हाथ में। इस तरह युद्ध रुक गया और ब्रह्मांड की रक्षा हो सकी। माता पार्वती के इसी शांत स्वरूप को समर्पित है श्री शांतादुर्गा मंदिर।

यह मंदिर गोवा की राजधानी पणजी से 30 किलोमीटर दूर पोंडा तहसील के कवलम नामक गाँव में स्थित है। श्री शांतादुर्गा देवी का मूल स्थान पहले केलोशी गाँव था लेकिन जब गोवा में पुर्तगालियों के शासनकाल में मूल मंदिर को 1566 में नष्ट कर दिया गया तब इन्हें कवलम स्थानांतरित किया गया। हालाँकि श्री शांतादुर्गा देवी का यह मंदिर हिन्दू गौर सारस्वत ब्राह्मणों का निजी मंदिर है लेकिन इसे गोवा के प्रमुख मंदिरों में से एक माना जाता है।

इस मंदिर का प्राचीनकाल से ही अस्तित्व रहा लेकिन वर्तमान दृश्य मंदिर की स्थापना सन् 1713 से सन् 1738 के दौरान सतारा के मराठा शासक छत्रपति साहू जी महाराज द्वारा की गई। साहू जी महाराज, मराठा गौरव और माँ दुर्गा के अनन्य भक्त छत्रपति शिवाजी महाराज के पोते थे।
मंदिर की संरचना और मुख्य देवी

श्री शांतादुर्गा मंदिर का सम्पूर्ण परिसर पश्चिमी घाट की पर्वत श्रृंखलाओं की तलहटी में स्थित है। इस परिसर में एक मुख्य मंदिर के साथ तीन अन्य मंदिर भी हैं। मंदिर की छत का निर्माण पिरामिड आकार में किया गया है। इसके अलावा मंदिर के स्तम्भ और फर्श के निर्माण में कश्मीरी पत्थरों का उपयोग किया गया है।

मंदिर परिसर में मुख्य गर्भगृह के अतिरिक्त जल कुंड, दीपस्तंभ और अग्रशाला भी मौजूद हैं। मंदिर के शिखर और सभामंडप भी इसका मुख्य आकर्षण है। मंदिर में एक स्वर्ण पालकी भी है, जिसे त्यौहारों के दौरान मंदिर के देवी-देवताओं की शोभायात्रा के लिए उपयोग में लाया जाता है।

मंदिर के गर्भगृह में श्री शांतादुर्गा की एक महमोहक मूर्ति स्थापित की गई है। हालाँकि देवी की मूल प्रतिमा को 1898 में पठान चुरा कर ले गए थे। इसके बाद श्री लक्ष्मण कृष्णाजी गायतोंडे के द्वारा बनाई गई प्रतिमा 19 मार्च 1902 को मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की गई। गर्भगृह में स्थापित देवी शांतादुर्गा की प्रतिमा के अलावा महादेव और भगवान विष्णु की दो छोटी प्रतिमाएँ भी स्थापित हैं। देवी शांतादुर्गा ने अपने दोनों हाथों में दो साँप पकड़ रखे हैं, जो भगवान विष्णु और महादेव के प्रतीक स्वरूप माने जाते हैं। इसके अलावा गर्भगृह में देवी की प्रतिमा के अतिरिक्त एक शिवलिंग भी स्थापित है।
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