बेटियाँ

बेटियाँ

आधुनिक बेटियोँ का एक सच यह भी है, अपवाद सब जगह होते हैं मगर सत्य से आँख नहीं चुराई जा सकती ——-
बेटियाँ
नहीं जाना चाहती
उस पिया के घर
जिसे ढूंढा है बाबुल ने
उसका हमसफ़र।
बेटियाँ
नहीं जाना चाहती
उस ससुराल की डगर
जहाँ होता है घर
सास, ससुर, नन्द व देवर।
बेटियाँ
नहीं ब्याहना चाहती
किसी व्यापारी के घर
जहाँ पति व्यस्त व्यापार में
और पत्नी रहे घर।
बेटियाँ
चाहती हैं ढूंढना
स्वयं अपना वर
सपनों का राजकुमार
धनवान हमसफ़र।
बेटियाँ
करने लगी बगावत
माँ-बाप से, समाज से
अक्सर नहीं करती समझौता
अपने घर के हालात से।
बेटियाँ
चाहती हैं आज़ादी
सामाजिक बंधनो से
घरेलु काम-धंधों से
रिश्तों के अनुबंधों से।
बेटियाँ
चाहती हैं उड़ना
उन्मुक्त सी, गगन में
निर्लज्जता के वस्त्र पहन
क्लब व किटी पार्टियों में।
बेटियाँ
देना चाहती हैं पहचान
अपने अस्तित्व को
बगावत के सुर अपना
बराबरी का हक़ दर्शाने को।
बेटियाँ
घूमने लगी हैं
आधी रात में सडकों पर
सिगरेट-शराब के नशे में
पुरुष मित्र के कंधे पर सर।
बेटियाँ
गावँ की पगडण्डी से निकल
पहुँच गयी शहर की सडकों तक
पढने को, आगे बढ़ने को
आधुनिक बनने को।
बेटियाँ
रहने लगी शहर में बिन विवाह
किसी दोस्त के संग
मृग तृष्णा सी भटकती
नकली हंसी में छिपाती
अपना दंभ।
बेटियाँ
गावँ में भी भटकने लगी
परिवार की उपस्थिति खलने लगी
रूप-रस के लोभी आशिकों से
अस्मिता दांव पर लगा मिलने लगी।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
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