आध्यात्मिक ‘हिन्दू राष्ट्र’ के समर्थक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी !

आध्यात्मिक ‘हिन्दू राष्ट्र’ के समर्थक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी !


प्रस्तावना : आज ‘हिन्दू राष्ट्र’, विषय पर सर्वत्र चर्चा हो रही है । भारत में हिन्दू राष्ट्र के कट्टर (पराक्रमी) समर्थक हैं, साथ ही अज्ञानवश अथवा हिन्दुत्व के प्रति द्वेष के कारण उसके विरोधी भी हैं । कुछ लोग हिन्दू राष्ट्र की ओर जातीय अथवा धार्मिक दृष्टिकोण से देखते हैं, तो कुछ लोग राजकीय संकल्पना के दृष्टिकोण से देखते हैं ! किसी को हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना लोकतंत्र विरोधी एवं असंवैधानिक लगती है, तो किसी को वह अन्य धर्मियों पर अन्याय करनेवाली लगती है ! किसी को लगता है कि किसी पक्ष को बहुमत अर्थात हिन्दू राष्ट्र, तो किसी को लगता है हिन्दू अर्थात पिछडापन ! संक्षेप में, हिन्दू राष्ट्र के विषय में जनमानस में भिन्न-भिन्न विचारधाराएं देखने को मिलती हैं । ऐसी परिस्थिति में लगभग 25 वर्ष पूर्व, अर्थात जब ऐसी स्थिति थी कि हिन्दुत्व का समर्थन करना भी अपराध लगत था, तब ईश्वरीय राज्य का अर्थात हिन्दू राष्ट्र का समर्थन करनेवाले एवं हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना सुस्पष्टता से प्रस्तुत करनेवाले व्यक्तित्व थे सनातन संस्था के संस्थापक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ! सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने हिन्दू राष्ट्र की आवश्यकता दृढता से प्रतिपादित करने के साथ ही हिन्दू राष्ट्र स्थापना की दिशा भी स्पष्ट की । उन्होंने इस विषय में ‘हिन्दू राष्ट्र क्यों चाहिए ?’, ‘हिन्दू राष्ट्र : आक्षेप एवं खंडन’, ‘हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की दिशा’ इन ग्रंथों की भी निर्मिति की । ये ग्रंथ हिन्दुत्व के अभियान में कार्यरत लोगों के लिए जितने मार्गदर्शक हैं, उतने ही हिन्दू राष्ट्र विरोधियों को भी इसकी जानकारी देते हैं कि वास्तव में ‘हिन्दू राष्ट्र’ कैसा होगा । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के 81 वें जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में प्रस्तुत इस लेख में उनके आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना पर प्रकाश डालनेवाले उनके ही तेजस्वी विचार दिए हैं । उसे पढकर हिन्दू राष्ट्र के अभियान में सम्मिलित होने की प्रेरणा हो, ऐसी ईश्वर चरणों में प्रार्थना है !

1. हिन्दू किसे कहें ? : ‘हिन्दू किसे कहें’, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । हिन्दू राष्ट्र की आध्यात्मिक संकल्पना में जन्म-हिन्दू अर्थात जो केवल जन्म से हिन्दू हैं, वे ‘हिन्दू’, ऐसी व्याख्या नहीं है । मेरुतंत्र नामक धर्मग्रंथ में ‘हीनं दूषयति इति हिन्दु: ।’ हिन्दू शब्द का ऐसा अर्थ दिया है । अर्थात जो हीनता का (हीन कर्म एवं गुण का) त्याग करता है, वह ‘हिन्दू’ ! संक्षेप में, हममें हीन गुणों एवं अनिष्ट शक्तियों का त्याग करनेवाले अर्थात सात्त्विक प्रवृत्ति के लोगों को हिन्दू कहें । ऐसे सत्त्वगुणी व्यक्ति ‘मैं एवं मेरा’ ऐसा संकुचित विचार त्याग कर विश्व के कल्याण का विचार करते हैं । हिन्दूपन की इस व्याख्या पर ध्यान देंगे तो यह स्पष्ट होता है कि जन्म से हिन्दू; परंतु कर्म से अथवा गुणों से बुरे व्यक्ति को हिन्दू नहीं कह सकते तथा जन्म से भले ही अहिन्दू हों, परंतु अच्छे कर्म एवं गुणों से युक्त लोगों को हिन्दू कह सकते हैं । हिन्दू राष्ट्र अर्थात (जन्म से) हिन्दुओं का राष्ट्र नहीं, अपितु विश्व कल्याणार्थ कार्यरत सात्त्विक लोगों का राष्ट्र ! इसलिए हिन्दू राष्ट्र में अन्य पंथियों का क्या होगा, यह प्रश्न ही निरर्थक है ।

2. हिन्दू राष्ट्र की आवश्यकता : पूरे विश्व में 152 से अधिक ईसाई राष्ट्र, 57 से अधिक इस्लामी राष्ट्र, 12 बौद्ध राष्ट्र हैं; इतना ही नहीं अपितु यहूदयों का भी एक स्वतंत्र ‘ज्यू राष्ट्र’ है; परंतु इस पृथ्वी पर 100 करोड से भी अधिक हिन्दुओं का एक भी हिन्दू राष्ट्र नहीं !

आज ‘सेक्युलर’ व्यवस्था में पूरे देश में आतंकवाद का साया है । अनेक प्रदेश नक्सलग्रस्त हैं, किसान आत्महत्या कर रहे हैं; मंहगाई से सर्वसामान्य लोगों का जीवन यापन भी दूभर हो गया है, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, सुस्त प्रशासन, विलंब से मिलनेवाले न्याय आदि समस्याएं दिनों-दिन बढती ही जा रही हैं । संक्षेप में, लोकतंत्र को अपेक्षित लोगों का हित का ध्यान रखने के लिए विद्यमान व्यवस्था असफल रही है । आज हिन्दूबहुल भारत में ‘सर तन से जुदा’ करने की खुलेआम धमकियां दी जा रही हैं, तो दूसरी ओर हिन्दुओं की धर्मश्रद्धा, अस्मिता एवं परंपराओं पर अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के नाम पर अश्लील टीका-टिप्पणी की जाती है । देश के लगभग 10 राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हो गए हैं । जिहादी आतंकवाद के कारण कश्मीर से विस्थापित हुए कश्मीरी हिन्दू आज भी अपने मूलस्थान वापस नहीं जा पाए हैं । दीर्घकालीन संघर्ष के उपरांत आज श्रीराममंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ है, तब भी मथुरा का श्रीकृष्णमंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर के साथ इस्लामी ढांचे में दबा दिए गए सैकडों मंदिर आज भी मुक्ति की प्रतीक्षा में हैं । इस परिस्थिति में परिवर्तन लाने के लिए हिन्दू राष्ट्र की आवश्यकता है । हिन्दू राष्ट्र ही पूरे देश में सभी समस्याओं का उत्तर है । ‘हिन्दू राष्ट्र’ की संकल्पना कोई राजनीति नहीं, अपितु वह राष्ट्रनिष्ठ एवं धर्माधिष्ठित जीवन यापन की एक प्रगल्भ संस्कृति एवं व्यवस्था होगी ।


3. हिन्दू राष्ट्र की मांग संवैधानिक ही है ! : अनादि काल से ‘हिन्दू राष्ट्र’ ही भारत की पहचान थी । इस्लामी एवं ब्रिटिश के शासन काल में भी हिन्दू राजाओं ने इस पहचान को टिकाए रखा था । वर्ष 1976 के आपातकालीन समय (इमरजेंसी) में जब विरोधी पक्ष कारागृह में बंद था, तब इंदिरा गांधी ने असंवैधानिक पद्धति से 42 वीं बार संविधान सुधार कर भारतीय संविधान में ‘सेक्युलर’ एवं ‘समाजवाद’ शब्द घुसेड दिए । ‘सेक्युलर’ शब्द की अबतक कोई भी अधिकृत व्याख्या नहीं की गई है; परंतु ‘सेक्युलर’पन के नाम पर हिन्दूबहुल भारत में हिन्दू ही असुरक्षित हो गए हैं । यदि संविधान सुधार कर भारत को ‘सेक्युलर’ घोषित किया जा सकता है, तो अब भी संविधान में सुधार कर भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ क्यों नहीं किया जा सकता है ? वर्ष 1947 में धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ । यदि उस समय भारत के मुसलमानों को इस्लामी सिद्धांत के आधार पर ‘पाकिस्तान’ मिला, तो हिन्दुओं के लिए भारत हिन्दू राष्ट्र होना चाहिए था; परंतु वह नहीं हुआ । यह चूक अब सुधारनी चाहिए ।

4. हिन्दू राष्ट्र पिछडा नहीं, अपितु समृद्धशाली : ‘भारत हिन्दू राष्ट्र होना अर्थात एक कदम पीछे जाने समान है’, ऐसा बताया जाता है; परंतु इसमें थोडा भी तथ्य नहीं ! प्राचीन भारत में सनातन वैदिक हिन्दू धर्म को राजाश्रय होने से यह राष्ट्र ऐहिक (व्यावहारिक) एवं पारमार्थिक (आध्यात्मिक) दृष्टि से प्रगति पथ पर थे । इसी लिए सुसंस्कृत एवं समृद्ध समाज, उत्तम वर्णव्यवस्था, आचार-विचारों की शुद्धि एवं आदर्श कुटुंब व्यवस्था, इन सभी बातों की निर्मिति इस हिन्दू धर्माधिष्ठित राष्ट्र में हुई थी । एंगस मेडिसन नामक विदेशी अर्थतज्ञ के अनुसार 17 वीं शताब्दी में वैश्विक व्यापार में भारत के अकेले का योगदान लगभग 25 प्रतिशत तक था । तब भारत ‘सेक्युलर’ नहीं था, परंतु वैभव के शिखर पर था । इसलिए धर्माधिष्ठित व्यवस्था ही हिन्दू राष्ट्र की नींव होगी ।

5. धर्माचरण ही धर्मराज्य की (हिन्दूराष्ट्र की) नींव : सर्व समाज धर्मनिष्ठा, राष्ट्रनिष्ठा, कर्तव्यभावना, नैतिकता, चारित्र्यसंपन्नता इत्यादि गुणों से युक्त होना, यह आदर्श समाज-व्यवस्था का उद्देश्य है । उसके लिए धर्म महत्त्वपूर्ण घटक है; कारण धर्म के आधार पर ही मनुष्य का अभ्युदय साधा जाता है, अर्थात लौकिक एवं पारमार्थिक जीवन उन्नत होता है एवं मोक्षप्राप्ति होती है । इसलिए धर्माधिष्ठित व्यवस्था ही लोगों का कल्याण साधनेवाली होती है ।

भौतिक विकास की दृष्टि से भी धर्म महत्त्वपूर्ण है ! आज ‘मेट्रो’, ‘मॉल’, ‘स्मार्ट सिटी’, अर्थात विकास, भौतिक विकास का ऐसा चित्र निर्माण किया जा रहा है । भौतिक विकास के कारण ‘मेट्रो’ एवं ‘मेट्रो’ के अत्याधुनिक रेलवे स्थानक मिलेंगे; परंतु ‘काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मत्सर इन षड्‌रिपुओं पर कैसे विजय प्रप्त करनी है’, इस विषय में विकास के तत्त्वज्ञान में कहां मार्गदर्शन है ? मेट्रो में नियम तोडकर किया जानेवाला अयोग्य वर्तन एवं महिलाओं का विनयभंग जिन षड्‌रिपुओं के कारण होता है, मेट्रो का व्यवस्थापन उनका निर्मूलन कैसे करेगा ? सीता का अपहरण करनेवाली रावण की लंका यद्यपि सोने की थी, तब भी आज लाखों वर्ष के उपरांत भी लोग लंका को नहीं, अपितु रामराज्य को ही आदर्श मानते हैं । धर्म एक ऐसा सूत्र है, जो काम, क्रोध, लोभ आदि षड्‌रिपुओं पर विजय पाना सिखाती है । इसलिए केवल भौतिक विकास साध्य करके नहीं, अपितु लोगों को धर्म सिखाकर नीतिवान बनाना भी उतना ही आवश्यक है । वास्तव में धर्म ही राष्ट्र का प्राण है !

6. प्रकृति अनुसार साधना करने की स्वतंत्रता देनेवाला व्यापक हिन्दू धर्म ! : हिन्दू धर्म अर्थात हिटलरशाही अथवा तानाशाही, ऐसा भी दुष्प्रचार किया जाता है । प्रत्यक्ष में हिन्दू धर्म समान स्वतंत्रता अन्य किसी भी पंथ में नहीं । बायबल में लिखा है कि ‘ईसाई मोजेस द्वारा बताई 10 आज्ञाओं के अनुसार ही (‘कमांडमेन्ट्स’ के अनुसार ही) आचरण करें ।’ इस्लाम में कुरान की आज्ञा अनुसार आचरण करने के लिए कहा गया है । इसके विपरीत संपूर्ण गीता बताने के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘विमृश्यैतद् अशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।’ (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 18, श्लोक 63) अर्थात ‘गीता में बताए गए धर्मज्ञान पर पूर्णरूप से सोच-विचार कर जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो ।’ इससे यह स्पष्ट होता है कि हिन्दू धर्म में किसी भी बात का दुराग्रह नहीं, अपितु प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रकृति अनुसार साधना करने की स्वतंत्रता है ।

7. हिन्दू राष्ट्र संकुचित नहीं, अपितु विश्व-कल्याणकारी ! : वास्तव में सनातन धर्म सार्वभौमिक, अर्थात सर्वभूमि के लिए कल्याणकारी है; कारण उसके सिद्धांत वैश्विक (यूनिवर्सल) हैं । भारतीय ऋषि-परंपरा ने विश्व-शांति के लिए यज्ञयाग किए थे तथा आज भी हिन्दू धर्म के संत केवल अपने समाज अथवा प्रांत के लिए ही नहीं, अपितु विश्व की शांति का संकल्प कर विश्व शांति यज्ञ करते हैं । धर्मसम्राट करपात्री स्वामीजी ने ‘धर्म की जय हो ! अधर्म का नाश हो !’, यह घोषणा करते हुए ‘विश्व का कल्याण हो !’, ऐसा उद्घोष किया था । इसलिए हिन्दू धर्माधिष्ठित राष्ट्र से ही विश्व शांति एवं विश्व कल्याण साकार हो सकता है ।आज सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी समाज को यही शिक्षा दे रहे हैं । इससे अब हमें ध्यान में आ ही गया होगा कि हिन्दू राष्ट्र कट्टरवादी न होकर सात्त्विक, आदर्श एवं धर्माधिष्ठित होगा । ऐसे हिन्दू राष्ट्र स्थापना के कार्य में सम्मिलित होना, कालानुसार धर्मकार्य ही है ।
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