वीरों और राजाओं को स्वतंत्रता सेनानी कहना बंद कीजिए ,यही सत्य निष्ठ राजनीति का पहला चरण है:-आचार्य रामेश्वर मिश्र पंकज

वीरों और राजाओं को स्वतंत्रता सेनानी कहना बंद कीजिए ,यही सत्य निष्ठ राजनीति का पहला चरण है:-आचार्य रामेश्वर मिश्र पंकज

अंग्रेजों और मुसलमानों की हिंदू पक्ष पर जीत को गांधी जी के नेतृत्व में सुरक्षित किया गया और डॉक्टर अंबेडकर ,जवाहरलाल नेहरू ,सरदार पटेल सहित उन सभी लोगों ने इसमें योगदान दिया है जो गांधी जी की भाषा बोलने लगे अथवा जो अंग्रेजों की भाषा बोलने लगे।
1860 ईस्वी के पहले तक कभी किसी भी हिंदू ने भारत को 1 दिन के लिए भी गुलाम नहीं बताया।
अंग्रेजों द्वारा जाली कागजातों, जाली पांडुलिपियों और जाली किताबों की रचना के बाद मुसलमानों और अंग्रेजों दोनों की गुलामी की बात शुरू हुई।
वही बात अभी तक चल रही है।
दस्युदलों और मलेछों के रूप में मुसलमानी उत्पातियों को पहचान कर उनके प्रति गहरा तिरस्कार रखते हुए उन्हें मार भगाया गया।
पर उसे अंग्रेजों के असर से मुसलमानों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम कहा जाने लगा ।
अब वही जारी है।


गए गुजरे निकृष्ट आततायियों और उत्पाती समूहों को मार भगाने को स्वतंत्रता संग्राम बताया जा रहा है।।


आए दिन भारत के हर क्षेत्र के वीर हिंदुओं को जो यहां के स्वाभाविक राजा थे अथवा यहां के वीर थे,
उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बताया जा रहा है ।
यह इतनी अधम बुद्धि है,इसमें इतनी हीन भावना है कि राजा स्वयं को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कह रहा है और इस प्रकार दस्यु और उत्पातियों को राजा कहा जा रहा है
जबकि उस समय वास्तविक समय कभी ऐसा नहीं हुआ।
परंतु आज के कथित राष्ट्रवादी हिंदू ऐसी अधम भाषा बोलते हैं और वह इस निकृष्ट दयनीय तिरस्कार योग्य भाषा को गर्व की चीज मानते हैं।


सर्वविदित है कि राजाओं से हाथ जोड़कर विनती करके कहीं लगान वसूलने वाले सेवक कर्मचारी बनकर ,कहीं कृपा पात्र व्यापारी बनकर ,फिर छल कपट से भूमि और संपत्ति हथियाने वालों को ही अंग्रेजी बुद्धि से ग्रस्त हिंदुओं ने "कंपनी सरकार "कहना शुरू कर दिया ।
यह बुद्धि हीनता और दयनिता की पराकाष्ठा थी।


इसके बाद भारतीय राज्यों से सन्धि करके ब्रिटिश राज्य आया परंतु चुपके-चुपके भारत के ईसाईकरण का भी हल्का-हल्का प्रयास करने लगा तो उसे जागृत हिंदुओं ने मार भगाया ।


उसमें बहुत तरह के दांव पेच स्वाभाविक थे ।


परंतु क्रांतिकारियों और लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल के समय तक सबको यही स्पष्ट था कि हम इस देश के मालिक हैं और इन दस्युओं के झुण्ड को मार भगाना है।
भाषा तो राजनीतिक रणनीति के अंतर्गत भिन्न-भिन्न बोलनी पड़ेगी ।


[ ] परंतु गांधीजी ने अचानक अपने को ब्रिटिश राज का सबसे वफादार सिपाही घोषित कर दिया और अंतिम चरण में जब भारतीय सेनाओं की वीरता से घबराकर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस से घबराकर फिरंगीयों को भारत छोड़ने में ही कुशल लगी और अमेरिकी राष्ट्रपति के दबाव के कारण भी भारत छोड़ना अनिवार्य हो गया ,
[ ] तब गांधी और नेहरू ने इसे भारत की स्वाधीनता प्रचारित कर दिया और आधे भारत में राजाओं से संधि के साथ भारतीयों की कृपा पूर्वक राज्य कर रहे लोगों को असली स्वामी बता दिया और पूरे भारत का ही स्वामी बता दिया जो कि स्वयं अंग्रेजों ने 1 दिन के लिए भी अपने को नहीं कहा था।
[ ] तब से मुसलमानों और अंग्रेजों को अलग-अलग समय भारत के मालिक रहे बताकर स्वाधीनता संग्राम की बात की जाने लगी है ।
[ ] जबकि सही भाषा यह है कि हमसे सन्धिपूर्वक यहां आकर हमारे साथ मिलकर हमारी सहभागिता में सुशासन करते हुए हमारा भला करने का दावा करने वालों ने जब दगाबाजी की तो हमने उन्हें मार भगाया। उसके लिए आवश्यक कौशल अपनाया जो राजनैतिक षाडगुण्य का अंग है ।
[ ] इसमें पराधीनता और स्वाधीनता की पदावली की कहीं कोई आवश्यकता ही नहीं है ।
[ ] पराधीनता और स्वाधीनता की शब्दावली आत्मग्लानि और हीन भावना जगाती है ।
[ ]
[ ] हिंदुत्व की सहज प्रतिष्ठा का पहला चरण होगा इस हीन अधम भाषा का पूर्ण परित्याग ।
[ ] भारत को 1 दिन के लिए भी पराधीन नहीं बताना और दुष्टों, दस्युदलों तथा उत्पातियों को 1 दिन शासक नहीं बताना ।
[ ] अर्थात उनका उचित प्लेसमेंट ।
[ ] उचित रूप से स्थान निर्धारण ।
[ ] जब तक कोई इन दस्युओं का भारतीय राष्ट्रीय जीवन में उचित स्थान निर्धारण नहीं करते,
[ ] तब तक सही सत्य निष्ठ धर्म निष्ठ और हिंदुत्व निष्ठ राजनीति का प्रारंभिक बिंदु भी नहीं आया है ,
[ ] यह मानना चाहिए ।
[ ] स्वयं को कभी भी गुलाम मानने वाले लोग हीनता और आत्मग्लानि से मुक्त नहीं हो सकते ।
[ ] यह संसार का सत्य है ।
[ ] कोई भी इसका अपवाद नहीं है ।
दस्यु को कहें स्वामी,
स्वामी को स्वतंत्रता वीर।
उनकी बुद्धि तरस के लायक,
कृपा करें रघुबीर।।

जय श्री समर्थ रघुवीर।
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