साहित्यिक भगवान
मार्कण्डेय शारदेयभइया! कविता लिखत-लिखत मरि जइबs ना तू इज्जति पइबs।
लाख बनs तू उच्च कोटि के बिन रुपया के पूजल जइबs?
रुपया खूब कमा खरीद लs दस-पनरह साहित्यकार के।
अपने पs साहित्य रचावs टीका ले लs कर्णधार के।
पुरस्कार सम्मान-योजना पइसे पs बा चलs दिया दीं।
बड़का-बड़का उपाधियन से कुल्हि कुकरनी चलs मिटा दीं।
खिखटी लेखा हो जइबs साहित्य-तपस्या में तप-तप के।
धोबी के कूकुर बनि जइबs कविता के माला जप- जप के।
बाबू डाँटसु, माई बोले, हित आ मीत मजाक उड़ावसु।
मिरकुचनी मेहरारू- लइका फक्कड़पन पs लोर बहावसु।
आवs पहिले नोट कमा लs तोन फुला लs दिहs दलाली।
मोट-मोट अक्षर में खाली अपने के पइबs तू हाली।
टकाकाल हs टका बिना साहित्य-शिरोमणि ना बन पइबs।
मानs बाति मंच-मंच पs आपन कीर्ति-ध्वजा लहरइबs।
भरs बेग में नोट चलs के ना दी तहरा के सम्मान?
साहित्य-भूमि के भार उतारे तू आइल बाड़s भगवान्!*
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