"शकुनि का अंत"- महाभारत के अनकहे पहलू

"शकुनि का अंत"- महाभारत के अनकहे पहलू

मनोज मिश्र
महाभारत के युद्ध के 17 दिन हो चुके थे। ज्यादातर महारथी काल के गाल में समा चुके थे। रात्रि काल में श्रीगालों की हुआ हुआ के बीच उनके शवों से मांस भक्षण की आवाज़ निशा की शून्यता को चीरती हुई मानवता के चेहरे पर गूंजती थप्पड़ सरीखी थी। कौन सही है कौन गलत? यह राजपुरुषों का खेल था पर अपने सत्य को ही अंतिम मानने वालों ने वीरों के शोणित से धरा लाल कर दी थी। योद्धा रक्त पिपासु बने रण में विचरण कर रहे थे। जिन के कंधों पर युद्धधर्म को बनाये रखने और उसका पालन कराने का भार था वे खुद धूल धूसरित हो धराशायी हो चुके थे। दुर्योधन के शिविर में मामा भांजे की मंत्रणा चल रही थी। अब ज्यादा कुछ हाथ मे था नहीं। अंतिम प्रहार कैसे किया जाय कि पासा फिर से अपने पक्ष में हो जाये। दुर्योधन के सभी भाई वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। पीड़ा, अवसाद, क्रोध, ईर्ष्या और उन्माद उसके चेहरे पर परिलक्षित था। शकुनि ने अपना मत रखा कि विजय के लिए कल पांडवों के छोटे भाइयों को घेर कर काल कलवित कर दिया जाय ताकि पांडव पक्ष भी इस युद्ध के दंश से परिचित हो सके। दुर्योधन इस रणनीति से सहमत था। शकुनि ने दुर्योधन से विदा ली और अपने शिविर की ओर चल दिया। चिंतित तो शकुनि भी था। उसके दो पुत्र वृकासुर और वृत्तचित्ति युद्ध मे खेत रहे थे सिर्फ उलूक ही था जो अब तक सुरक्षित था। चिंता की रेखाओं से उसका भाल अटा पड़ा था। वैसे सब कुछ हो तो उसकी योजना के अनुरूप ही था पर उसके स्वयं के पुत्र उसकी प्रतिशोध की अग्नि में हविष्य बन जाएंगे उसने कभी सोचा ही न था। उसे रह रह के वे दिन याद आने लगे जब धृतराष्ट्र ने सिर्फ शक के कारण उसके पिता समेत उंसके पूरे 99 भाइयों को भूखा रख कर मरवा दिया था। हुआ यूं था कि गांधारी की कुंडली में कोई दोष था जो उसके विवाहित जीवन को दंशित कर सकती थी। पंडितों और ज्योतिषियों ने इसका उपाय यह बताया था कि कन्या का विवाह किसी अज यानी बकरे से करवा कर उस आज की बलि दे दी जाय तो यह दोष स्वतः समाप्त हो जाएगा। फिर ऐसा ही किया गया। पुनः जब भीष्म ने गांधारी का धृतराष्ट्र के साथ विवाह का प्रस्ताव राजा सुबल को दिया तो उनके पास कोई अन्य विकल्प भी नहीं था। गांधारी ने भी इसे अपनी नियति मान कर इस प्रारब्ध को स्वीकार कर लिया था। समय सुख पूर्वक गुजर रहा था कि अचानक एक दिन किसी गुप्तचर ने सम्राट धृतराष्ट्र को सूचना दी कि गांधारी का यह दूसरा विवाह है और उनके जननी जनक ने यह बात हस्तिनापुर को नहीं बताई थी। सम्राट के अहं को गहरी चोट पहुंची और आनन फानन में राजा सुबल और उसके 100 पुत्रों को बंदी बना लिया गया। धृतराष्ट्र कुछ भी सुनने को तैयार न थे। सज़ा सुना दी गयी कि इन बंदियों को दैनिक सिर्फ एक मुट्ठी चावल खाने के लिए दिया जाय। इतने से अन्न से 101 व्यक्तियों की क्षुधा का शमन तो हो नहीं सकता था अतः सुबल ने सोच समझ कर यह निर्णय लिया कि यह अन्न उसके सबसे छोटे पुत्र शकुनि को दिया जाय चूंकि शकुनि अत्यधिक कुशाग्र निर्भीक और संतुलित मष्तिष्क का था। ऐसा ही किया गया और इधर एक एक करके शकुनि के सभी भाई और पिता मृत्यु को प्राप्त हो गए। कालांतर में जब गांधारी को उसके भाइयों और पिता की मृत्यु की सूचना मिली तो उसने अनुनय विनय करके धृतराष्ट्र से शकुनि के लिए क्षमादान मांग लिया। धृतराष्ट्र ने उसे वापस अपने प्रदेश लौट जाने की अनुमति दे दी परंतु शकुनि ने हस्तिनापुर से ही गांधार पर शासन करने की अनुमति मांगी। फिर तो शकुनि ने अपनी कुशाग्र बुद्धि के बल पर सुयोधन को प्रभावित करने में देरी नहीं लगाई। अपने ऊपर हुए हस्तिनापुर के इस अत्याचार ने उसे अंदर से पाषाण बना दिया था। उसने प्रण कर लिया था कि वह किसी भी कीमत पर धृतराष्ट्र और उसके पुत्रों का नाश कर देगा। शकुनि शुरू से ही पांसे खेलने में चतुर था। कहीं शकुनि अपने पिता और भाइयों के ऊपर हुए अत्याचार को भूल न जाये इस बात को रेखांकित करने के लिए शकुनि की एक टांग बचपन में ही तोड़ दी गयी थी ताकि उसकी लंगड़ी टांग उसके परिजनों पर हुए अत्याचारों की साक्षी बनकर हमेशा उसके साथ रहे और उसका प्रण उसे याद दिलाती रहे। मरते समय राजा सुबल ने शकुनि को कहा कि वह उनकी हड्डियों से पांसे बनवाये और वे प्रेत रूप में सदैव उसके पांसों को बोली के अनुसार ही नियत करेंगे। मृत्योपरांत सुबल की रीढ़ की हड्डियों से शकुनि के लिए पांसे बनवाये गए जो अंततः पांडवों के अज्ञातवास का कारण बने।
शकुनि की चाल में तेजी आ गयी। उसे अभी उलूक के साथ कल के युद्ध के लिए स्वयं को और सेना को तैयार करना था। हतोत्साहित सैनिकों का मनोबल उठाना वैसे भी बड़ा दुष्कर कार्य था। मंत्रणा में निर्णय हुआ कि नकुल और सहदेव में से किसी एक को या दोनों को युद्धस्थल पर घेर लिया जाय और जय या क्षय का युद्ध हो।
नियत समय पर युद्ध शुरू हुआ और कौरवों की सेना ने सहदेव को घेर लिया। सोचने और प्रत्यक्ष में बड़ा अंतर होता है। सहदेव युद्ध मे कौरव सेना पर भारी पड़ने लगे। पहले से ही हतोत्साहित सेना सहदेव के प्रचंड वेग को झेल न सकी और हर उस दिशा से पलायन करने लगी जिधर से उनका रथ दृष्टिगत हो रहा था। सहदेव को रोकने उलूक सामने आए पर वन कि अग्नि में तपे, दुष्कर पथ पर बेलगाम अश्व की भांति दौड़ाने वाले सहदेव को रोकना उस दिन असंभव सा था। कुछ ही देर में उलूक वीरगति को प्राप्त हो गए। शकुनि का इस समाचार से हृदय विदीर्ण हो गया। अन उंसके पास अपनी प्राण रक्षा ला एक ही उपाय था - युद्धभूमि से पलायन। कपट, कायरता और छल में निपुण शकुनि यूँ तो युद्ध कला में भी निष्णात था परंतु अपने सभी पुत्रों की मृत्यु ने उसे अंदर से हिला दिया था। वह रणभूमि छोड़ भागने लगा। शकुनि ने धृतराष्ट्र और पाण्डवों की बर्बादी तो चाही थी पर यह न जानता था कि उसकी लगाई अग्नि में उसका पाना सर्वस्व भी स्वाहा हो सकता है। आज युद्ध मे घायल, अपने पुत्रों को खोकर व्यथित यह महारथी साधारण सैनिक के समान पलायित था। महाबली भीम को जब यह बात ज्ञात हुई कि सहदेव को घेरा जा रहा है तो वे उसकी सहायता के लिए अपना रथ मोड़ कर सहदेव की ओर बढ़े। परंतु तब तक सहदेव अपने युद्ध कौशल का परिचय दे चुके थे। उसने मुस्कुराते हुए शकुनि के युद्ध से पलायन का वृतांत भीम को सुनाया। भीम ने अपना रथ तुरंत उस दिशा में मोड़ दिया जिधर शकुनि पलायित हुआ था। कुछ ही चेष्टा के बाद भीम शकुनि को बंदी बना लेटव हैं और द्रौपदी के शिविर में उपस्थापित कर देते हैं। द्रौपदी स्वयं अपने अपमान की क्रोधाग्नि में तप रही थी। उसने शकुनि को कहा कि वो अपनी अंतिम इच्छा अगर कोई हो तो बताए। शकुनि अपने को घिरा देखकर पुनः द्यूत के लिए आह्वाहन देता है। द्रौपदी कहती है इस बार वह स्वयं द्यूत को संचालित करेगी। इस द्यूत क्रीड़ा की शर्तें भी तय होती है। अगर पांसा शकुनि के खिलाफ जाएगा तो शकुनि के क्रमश हाथ पैर और गर्दन कटेगी। पाण्डवों की ओर से भगवान कृष्ण पांसे चलते हैं पर द्यूत में कुशल कपटी शकुनि भगवान श्रीकृष्ण से भी जीतने लगता है और हंस पड़ता है। यह देख पांडव दल चिंतित हो उठता है और श्री कृष्ण की ओर देखने लगता है, तब भगवान अपनी हाँथो से जबरन पासे को पलट कर शंकुनी को हराने लगते है और उसके एक-एक अंग कटने लगते है। इस पर शकुनी का आर्तनाद होता है यह तो अन्याय है अगर सामर्थ्य है तो नियमतानुसार जीत कर दिखाओ । पासे की गोटी को जबरन हाथो से बदलने का कोई विधान नहीं है।
यह खेल के नियम के विरुद्ध है ।
यह अन्याय है, छल है, धोखा है, घात है ।।
इस पर भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि मैं सभी कलाओं में निपुण हूँ ।
तुम्हें नियम और नीति से हराना भी मेरे लिए बाएं अँगुल का खेल है फ़िर भी मैं तुम्हें नियम-विरुद्ध हरा रहा हूँ ताकि तुम छल, कपट के दर्द को अनुभव करते हुए मृत्यु को प्राप्त करो।
तुम आजीवन अपनी नीतियों से छली, कपटी, घाती, धूर्तों एवं अन्यायियों का समर्थन करते आये हो l
तुमसे से पीड़ित होने वाली आत्माये यही कहती रही है कि यह छल है, यह कपट है, यह घात है, इसलिए हे, शकुनि तुम भी इन्ही शब्दों के साथ अंत को प्राप्त करो।
अस्त्र-शस्त्र, आमना-सामना, सुरवीर और एक महान योद्धा की भांति मृत्यु प्राप्त करने लायक तुमने कभी कर्म ही नहीँ किये है ।
कर्मविधान के हिसाब से तुम इसी मृत्यु के लायक हो। यह कहते हुए कृष्ण ने एक बार पुनः अपने हाथों से जबरन पैसों को पलट दिया जिससे शकुनि की गर्दन कट गयी और वो मृत्यु को प्राप्त हो गया।
युधिष्ठिर का रथ तब तक शिविर के द्वार पर आ गया था। द्रौपदी के आनन पर अत्यंत संतोष के भाव थे। अन्य पांडव अपनी खुशी छिपा नहीं पा रहे थे। युधिष्ठिर ने प्रश्नवाचक दृष्टि कृष्ण पर डाली। कृष्ण ने कहा कि कभी कभी छली को छल से ही हराना पड़ता है ताकि समाज को सही संदेश जा सके। युधिष्ठिर किंकर्तव्यविमूढ़ बने अपने रथ की ओर बढ़ चले।-
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