ईश्वर के जिस रूप पर सुगमता से मन लगे उसी पर लगाना चाहिए

ईश्वर के जिस रूप पर सुगमता से मन लगे उसी पर लगाना चाहिए

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-इस श्लोक में बतलाया हुआ ध्यान सगुण परमेश्वर का है या निर्गुण ब्रह्म काः’ और उस ध्यान को भेदभाव से करने के लिये कहा गया है या अभेद भाव से?

उत्तर-इस श्लोक मेें ‘मंचित्तः’ और ‘मत्परः‘ पदों का प्रयोग हुआ है। अतएव यहाँ निर्गुण ब्रह्म के तथा अभेदभाव के ध्यान की बात नहीं है। इसलिये यह समझना चाहिये कि यहाँ उपास्ज्ञय और उपासक का भेद रखते हुए सगुण परमेश्वर के ध्यान की ही रीति बतलायी गयी है।

प्रश्न-यहाँ सगुण के ध्यान की रीति बतलायी गयी है, यह तो ठीक है; परन्तु यह सगुण-ध्यान सर्व शक्तिमान् सर्वधार परमेश्वर के निराकार रूप का है, या भगवान् श्री शंकर, श्री विष्णु, श्रीराम, श्रीकृष्ण-प्रभृति साकार रूपों में किसी एक का है।

उत्तर-भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्य को समझकर मनुष्य अपनी रुचि, स्वभाव और अधिकार के अनुसार जिस रूप में सुगमता से मन लगा सके, वह उसी रूप का ध्यान कर सकता है। क्योंकि भगवान् एक हैं और सभी रूप उनके हैं। अतएव ऐसी कल्पना नहीं करनी चाहिये कि यहाँ अमुक रूप विशेष के ध्यान के लिये ही कहा गया है।अब यहाँ साधकों की जानकारी के लिये ध्यान के कुछ स्वरूपों का वर्णन किया जाता है।
ध्यानस्थ भगवान् श्रीशंकर का ध्यान

हिमालय के गौरीशंकर शिखर पर सर्वथा एकान्त देश में भगवान् शिव ध्यान लगाये पद्मानसन से विराजित हैं; उनका शरीर अत्यन्त गौर वर्ण है, उस पर हल्की-सी लालिमा छायी है। उनके शरीर का ऊपर का भाग निश्छल, सीधा और समुन्नत है। विशाल भाल पर भस्म का सुन्दर त्रिपुण्ड शोभित हो रहा है, पिंगल वर्ण का जटाजूट चूड़ा के समान ऊँचा करके सर्प के द्वारा बाँधा हुआ है। दोनों कानों में रुद्राक्ष माला है। ओढ़ी हुई रीछ की काली मृगछाला की श्यामता नीलकण्ठ की प्रभा से और भी घनीभूत हो रही है। उनके तीनों नेत्रों की दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर सुस्थिर है और न नीचे की ओर झुके हुए स्थिर और निस्पन्द नेत्रों से उज्ज्वल ज्योति निकलकर इधर-उधर छिटक रही है। दोनों हाथ गोद में रक्खे हुए हैं, ऐसा जान पड़ता है मानो कमल खिल गया हो। उन्होंने समाधि अवस्था में देह के अंदर रहने वाले वायु समूह को निरुद्ध कर रक्खा है, जिसे देखकर जान पड़ता है माने वे जल पूर्ण और आडम्बर रहित बरसने वाले बादल हैं अथवा तरंगहीन प्रशान्त महासागर हैं; या निर्वात देश में स्थित निष्कल ज्योर्तिमय दीपक हैं।

भगवान् श्रीविष्णु का ध्यान

अपने हृदय कमल पर या अपने सामने जमीन से कुछ ऊँचे स्थित एक रक्त वर्ण के सहस्र दल कमल पर भगवान् श्रीविष्णु सुशोभित हैं। नील मेघ के समान मनोहर नीलवर्ण है, सभी अंग परम सुन्दर हैं और भाँति-भाँति के आभूषणों से विभूषित हैं। श्री अंग से दिव्य गन्ध निकल रही है। अति शान्त और महान् सुन्दर मुखार बिन्द है। विशाल और मनोहर चार लंबी भुजाएँ हैं। अत्यन्त सुन्दर और रमणीय ग्रीवा है, परम सुन्दर गोल-कपोल हैं, मुख मण्डल मनोहर मन्द मुसकान से सुशोभित है, लाल-लाल होंठ और अति सुन्दर नुकीली नासिका है। दोनों कानों में मकराकृति कुण्डल झलमला रहे हैं। मनोहर चिबुक है। कमल के समान विशाल और प्रफल्लित नेत्र हैं और उनसे स्वाभाविक ही दया प्रेम, शान्ति, समता, ज्ञान, आनन्द और प्रकाश की अजस्र धारा बह रही है। उन्नत कंधे हैं। मेघ श्याम नील-पदार्थ पùवर्ण शरीर पर सुवर्ण वर्ण पीताम्बर शोभायमान है। लक्ष्मी जी के निवास स्थान वक्षः स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह है। दाहिने ऊपर के हाथ में सुन्दर अत्यन्त उज्ज्वल किरणों से युक्त चक्र है, नीचे के हाथ में कौमोद की गदा है, बायें ऊपर के हाथ में सुन्दर श्वेत विशाल और विजयी पांचजन्य शंख है और नीचे के हाथ में सुन्दर रक्त वर्ण कमल सुशोभित है। गले में रत्नों का हार है, हृदय पर तुलसी युक्त वनमाला, वैजयन्ती माला और कौस्तुभ मणि विभूषित है। चरणों में रत्न जटित बजने वाले नूपुर हैं और मस्तक पर देदीप्यमान किरीट है। विशाल, उन्नत और प्रकाशमान ललाट पर मनोहर ऊध्र्वपुण्ड तिलक है, हाथों में रत्नों के कड़े, कमर में रत्न जटित करधनी, भुजाओं में बाजूबंद और हाथों की अँगुलियों में रत्नों की अँगूठियाँ सुशोभित हैं। काले-घुँघराले केश बड़े ही मनोहर हैं। चारों ओर करोड़ों सूर्यों का सा परन्तु शीतल प्रकाश छा रहा है तथा उसमें से प्रेम और आनन्द का अपार सागर उमड़ा चला आ रहा है।

भगवान् श्रीराम का ध्यान

अत्यन्त सुन्दर मणिरत्नमय राज्य सिंहासन है, उस पर भगवान् श्रीराम चन्द्र श्री सीताजी सहित विराजित हैं। नवीन दूर्वादल के समान श्यामवर्ण है, कमल दल के समान विशाल नेत्र हैं, बड़ा ही सुन्दर मुख मण्डल है, विशाल भाल पर ़ऊघ्र्व पुण्ड् तिलक है। घुँघराले काले केश हैं। मस्तक पर सूर्य के समान प्रकाश युक्त मुकुट सुशोभित है, मुनि मन मोहन महान् लावण्य हैं, दिव्य अंग पर पीताम्बर विराजित हैं। गले में रत्नों के हार और दिव्य पुष्पों की माला है। देह पर चन्दन लगा है। हाथों में धनुष बाण लिये हैं, लाल हों हैं, उन पर मीठी मुसकान की छबि छा रही है। बायीं ओर श्री सीताजी विराजिता हैं। इनका उज्ज्वल स्वर्ण वर्ण है, नीली साड़ी पहने हुए हैं, कर कमल में रक्त कमल धारण किये हैं। दिव्य आभूषणों से सब अंग विभूषित हैं। बड़ी ही अपूर्व और मनोरम झाँकी है।

भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान वृन्दावन में श्री यमुनाजी का तीर है, अशोक वृक्षों के नये-नये पत्तों से सुशोभित कालिन्दी कुंज में भगवान् श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ विराजमान हैं, नवीन मेघ के समान श्याम आभा युक्त नीलवर्ण है। श्याम शरीर पर सुवर्ण वर्ण पीत वस्त्र ऐसा जान पड़ता है मानो श्याम घनघटा में इन्द्र धनुष शोभित हो। गले में सुन्दर वनमाला है, उससे सुन्दर पुष्पों की और तुलसीजी की सुगन्ध आ रही है। हृदय पर वैजयन्ती माला सुशोभित है। सुन्छर काली घुँघराली अलकें हैं, जो कपोलों तक लटकी हुई हैं। अत्यन्त रमणीय और त्रिभुवन मोहन मुखार बिन्द है। बड़ी ही मधुर हँसी हँस रहे हैं। मस्तक पर मोर की पाँखों का मुकुट पहने हैं। कानों में कुण्डल झलमला रहे हैं, सुन्दर गोल कपोल कुण्डलों के प्रकाश से चमक रहे हैं। अंग-अंग से सुन्दरता निखर रही है। कानों में कनेर के फूल धारण किये हुए हैं। अद्भुत धातुओं से और चित्र-विचित्र नीवन पल्लवों से शरीर को सजा रक्खा है। वक्षः-स्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है, गले में कौस्तुभमणि है। भौंहें खिंची हुई हैं। लाल-लाल होंठ बड़े ही कोमल और सुन्दर हैं। बाँके और विशाल कमल-से-नेत्र हैं, उनमें से आनन्द और प्रेम की विद्युत धारा निकल-निकल कर सबको अपनी ओर आकर्षित कर रही है, जिसके कारण सबके हृदयों में आनन्द और प्रेम का समुद्र-सा उमड़ रहा है। मनोहर त्रिभंग रूप से खड़े हैं तथा अपनी चंचल और कोमल अंगुलियों को वंशी के छिद्रों पर फिराते हुए बड़े ही मधुर स्वर से उसे बजा रहे हैं।
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