आत्मबोध ,मुक्तिबोध और शत्रुबोध

आत्मबोध ,मुक्तिबोध और शत्रुबोध

प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज
अपनी ज्ञान परंपरा अवरुद्ध या बाधित हो जाने से भाषा बोध के स्तर पर भी बहुत से भ्रम पैदा होते हैं ।
आत्मबोध, मुक्तिबोध और शत्रु बोध:- ,इन 3 शब्दों को लेकर भी बहुत से भ्रम फैलते दिख रहे हैं।
इस विषय में बहुत संक्षेप में मुझे कुछ कहना है ।
आत्म बोध की साधना का अर्थ है आत्मा के मूल स्वरूप को साधना पूर्वक जानना।
जगत के बोध से उसका कोई विरोध नहीं है।
आत्मबोध होने पर अपने शेष प्रारब्ध के अनुरूप जागतिक कार्य भी किए ही जाते हैं ,जब तक प्रारब्ध शेष है।
आत्म ज्ञान वस्तुत: सर्वोच्च ज्ञान है और अन्य ज्ञान रूपों से उसका विरोध नहीं है अपितु वह अपने सूर्य जैसे प्रकाश से अन्य ज्ञान रूपों को भी अधिक तेजस्वी, अधिक दीप्त और अधिक ,भास्वर बना देता है।।
यही बात मुक्ति -बोध के विषय में है।
जीवन में मुक्ति की कामना का अर्थ है इंद्रियों, मन और बुद्धि की तरह-तरह की संरचनाओं से जो बंधन पैदा होते हैं ,वासनाओं से, आकांक्षाओं से ,लालसाओं से और संकल्पों से जो बंधन पैदा होते हैं अर्थात जो ज्ञान पूर्वक कर्तव्य की भावना से करने की जगह अहंकार की भावनासे भोग की लालसा आदि से किए जाते हैं, उन सब बंधनों को ठीक ठीक देखना है ।
अतः जो मुक्ति - बोध की साधना करेगा,( इसका अर्थ है कि जो आत्मबोध की साधना करेगा और उससे संपन्न होगा ),उसकी भाषा अध्यात्म के स्तर पर भिन्न होगी।
उसके लिए कहीं कोई शत्रु नहीं है तो कहीं कोई मित्र भी नहीं है ।उसके लिए धर्म ही मित्र है।
सभी अपने हैं, कहने का अर्थ यह है कि सब में एक आत्मा सत्ता प्रकाशित है या भासित है ,यह उसे दिखने लगेगा ।
लेकिन जिस प्रकार वह अपने भीतर की किसी गंदगी को,अनीति को ,अनौचित्य को ,पाप को ,दोष को रहने नहीं देगा,वैसे ही अन्यों की भी अनीति, अन्याय, पाप वृत्ति भी नष्ट करके ही रहेगा।
यही आत्मबोध होने का और मुक्ति के बोध होने का प्रमाण है।
उसी प्रकार समाज में जो कुछ भी अशुभ है ,अनिष्टकर है ,अनैतिक है ,अनीति और अन्याय है ,
उसे नष्ट करने का उसका संकल्प रहेगा। अगर उसका प्रारब्ध समाप्त हो चुका है तो वह तत्काल ही मोक्ष को प्राप्त हो जाएगा ।
जब तक प्रारब्ध शेष है तब तक वह शुभ के संरक्षण और संवर्धन तथा अशुभ और पाप के हनन का निरंतर प्रयास करेगा ।निरंतर अपना कर्तव्य करेगा ।जितना उसकी शक्ति में हो और जितना उसके कर्तव्य की सीमा के अंतर्गत आता हो।
उदाहरण के लिए पवित्र गुरुओं के वचन की बात को लेते हैं तो वे अध्यात्मिक विभूति हैं अतः यही कहेंगे ना कि इस दुनिया में कोई भी गैर नहीं। कोई भी पराया नहीं।
अच्छा ,सब अपने जैसे हैं इसलिए जैसे अपने भीतर की अनीति को, अन्याय को, पाप को, दुष्टता को और उनकी संभावना को उन्होंने समाप्त किया है,
वैसे ही अन्य के भीतर भी और समाज के भीतर भी अन्याय और पाप नष्ट करेंगे।
इस प्रकार पापी राजा जो है वह उनका अपना नहीं है। पापी राजा के भीतर जो आत्मसत्ता प्रकाशित है ,वह तो अपनी ही है।पर उसकी पाप वृत्ति उनकी अपनी नहीं है।इन दोनों बातों में बहुत अंतर है।।
जहां तक जहांगीर या औरंगजेब आदि मुगल राजाओं की बात है, उनकी वास्तविक शक्ति बहुत थोड़ी थी। जहांगीर तो शराबी आवारा था और व्यभिचारी व्यक्ति था।
उसको मोहरा बनाकर कुछ राजपूत राजा और कुछ अन्य हिंदू राजा तथा अनेक मुल्ला मौलवी और दुष्ट मुसलमान अपना खेल खेल रहे थे ।
जहांगीर कोई सिखों का राजा नहीं था ।किसी गुरु का राजा वह दुष्ट नहीं था ।
गुरुओं के साथ इन मुगलों ने जो भी बर्बरता की, नीचता की, अत्याचार किए, वह उनका अपना पाप है ।अनीति है ।गंदगी है । और उसके कारण वे सब प्रकार से धिक्कार के योग्य हैं और जो भी उनका आज के दिन भी समर्थन करता है या उनके पक्ष में पुस्तकें या पाठ्य पुस्तकें लिखता लिखवाता है ,
वह हिंदुओं द्वारा तथा सिखों द्वारा दण्ड के योग्य है।
परंतु क्योंकि अभी धर्म मय राज्य सत्ता नहीं है इसलिए ऐसे लोग लेखक और जाने क्या-क्या बने हुए हैं।
ऐसों के तो कुल का नाश कर दिया जाना चाहिए जो गुरुओं के हत्यारों का किसी भी रूप में पक्ष लेते हैं। उनका कुल समूल नष्ट कर दिए जाने योग्य है ।
यही शास्त्र का निर्णय है।
अभी कोई धर्ममय राजा नहीं है और समाज में भी धर्म की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। कोई भी तेजस्वी नेतृत्व नहीं है किसी भी क्षेत्र में वीरोचित व्यक्ति समाज में नहीं है । केवल सेना में बच गया है।
इसलिए यह सब चल रहा है।
पर ध्यान रहे,
गुरुओं के कहने से सिखों ने कभी किसी मुगल राजा को अपना सगा नहीं माना ।कुछ लोभी राजाओं ने और कुछ अन्य लोगों ने अवश्य उनसे सौदेबाजी की। तालमेल रखा। लेनदेन का व्यवहार रखा।
पर उन्होंने भी कभी अपना नहीं माना ।
इसलिए उनके उदात्त वचन कहने से जहांगीर ने उनके साथ नृशंसतम व्यवहार किया, अन्यथा नहीं करता।।ऐसा बिल्कुल नहीं है।
संत होने से उनके द्वारा दुष्ट और पापी मुस्लिम जागीरदारों को अपना कहे जाने से उन्होंने कोई गलती नहीं की।निर्णय की चूक नहीं किया।
क्योंकि सबको पता था यह तो संतों की वाणी है और इसका अर्थ यह नहीं होता कि हम दुष्टों को सगा मान लें।
राजनीतिक व्यवहार में भी ऐसी भाषा और फिर ऐसी भावनाएं बढ़ाई जाए, यह तो सबसे पहले मोहनदास करमचंद गांधी नेकिया।
सिख गुरु जो है ,वह कोई आधुनिक किस्म के राजनेता नहीं थे ।
उस समय समाज में संतों की बहुत बड़ी प्रतिष्ठा थी।( भावना के स्तर पर अब भी है पर पहले संपन्न लोग सशक्त लोग ,क्षत्रिय लोग ,राजा लोग भी संतों को मानते थे और उन्हें वह अधिकार देते थे ,,वह सब अधिकार संतो से 1947 के बाद कानूनन छीन लिया गया है ।।
यह अधिकार छीने जाने में गांधी जी की बहुत बड़ी भूमिका है क्योंकि उन्होंने राजनेताओं के द्वारा संत पद हथिया लेने का सूत्रपात किया, जो परधर्म है और जो एक भयावह कर्म है। आजकल स्वयं भारतीय जनता पार्टी में बहुत से राजनेता इस दृष्टि से गांधी जी के ही चेले हैं कि वे संतों की भाषा बोलते हैं ।।
जब राजनेता संत की भाषा बोले तो वह अत्यंत दुष्ट और पाखंडी होता है क्योंकि उसे जनता ने दंड नीति के सम्यक प्रयोग के लिए चुना है।संतई के लिए नहीं।संत तो बड़े बड़े भरे पड़े हैं।
राजनेता का काम दुष्टों को दंड देना है ।राजनेता द्वारा संतो की भाषा बोलना अपने कर्तव्य से विमुखता का लक्षण है।
गांधीजी ने भी यही किया। लेकिन उन्होंने थोड़ा सा ही किया ।
बाद के नेताओं ने कांग्रेस ,भाजपा और सभी दलों के नेताओं ने यह पाप बहुत अधिक किया है।
दुष्टों की रक्षा करना इन दिनों नेताओं का एक प्रमुख काम हो गया है।
यह गांधीजी से ही शुरू हुआ।
लेकिन एक अर्थ में मुसलमानों से सन्धि करने वाले राजपूत तथा अन्य राजा भी यही काम कर रहे थे जो गांधीजी ने खुलकर किया और गांधीजी के बाद उनका नाम ले लेकर सभी दलों के नेताओं ने बहुत ही भीषण रूप में किया ।।
गुरु ओं ने ऐसा कोई भ्रम नहीं फैलाया।
उनके कारण सिखों ने कभी मुगलों को कोई महान और अपने गुरु के तुल्य श्रेष्ठ पूजनीय माना हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता ।
गुरु के मधुर और उदात्त वचन से कोई दुष्टोंके बारे में भ्रमित नहीं हुआ। समझ गया। समझ गया कि यह संत की वाणी है ।
संत की वाणी संत के मुंह से ऐसी ही शोभा पाती है।
संतों की वाणी का अर्थ समझना हिंदू समाज अच्छी तरह जानता है ।
आज तक किसी भी सिख या हिंदू ने दुष्ट नीच और पापी मुसलमानों को अच्छा नहीं माना है ।
तो दोषी मुगल राजाओं ने जो महापाप किया
अक्षम्य पाप किया, दंडनीय अपराध किया ,
उसका कारण उनकी अपनी प्रवृत्ति है ।
वह पाप इस्लाम का नाम लेकर उसकी आड़ में किया गया,
इससे वह सही नहीं हो जाता।
औरंगजेब जहांगीर आदि का यह सभी दंडनीय अपराध है।। गुरुओं ने कोई भ्रम रचा था, इसलिए उन्होंने यह पाप किया ,अन्यथा न करते,ऐसा नहीं है।
उन्हें तो यह करना ही था।
इसलिए इस भ्रम में हमें नहीं रहना चाहिए कि आत्मबोध और मुक्ति - बोध शत्रु बोध को समाप्त करते हैं ।।
नहीं ,कदापि नहीं ।।
शत्रु बोध समाप्त होता है भय या लोभ लालच से ।
और वर्तमान में तो हिंदू नेताओं में शत्रु बोध इसलिए नहीं दिखता कि वह वस्तुत: हिंदू धर्म और हिंदू समाज के प्रति आत्म भाव और आत्मीयता रखते ही नहीं । वे तो हिंदुघातक को भी अपना बताते हैं।इन दिनों तो आरएसएस के प्रमुख भी हिंदु घातक जनों को अपना सगा बताते हैं ।नेता तो सबके प्रतिनिधि बनते हैं।
इस अर्थ में वह हिंदू समाज और हिंदू धर्म के प्रतिनिधि नहीं हैं ।।
वह हिंदू घरों में जन्म लिए और मतदाताओं को कभी हिंदुत्व के नाम पर तो कभी समाजवाद के नाम पर भरमाने वाले सत्ता लोभी पॉलिटिकल लोग हैं।
इन सब तथ्यों को हमें जानना चाहिए।।
आत्मज्ञान और मोक्ष की साधना से कभी कोई अनिष्ट नहीं हुआ है ।आत्मज्ञान या मुक्ति की साधना मनुष्य को मूर्ख नहीं बनाती।
वह पापी को अपने सामान देखना नहीं सिखाती।
वह रावण में राम देखना नहीं सिखाती ।
वह कंस में कृष्ण देखना नहीं सिखाती।
महत्व की बात धर्म का विवेक है।
धर्म का विवेक जागृत रहेगा तो आतातायी आतताई ही दिखेगा ।
धर्म का विवेक जागृत रहेगा तो कभी भी मजहब या रिलीजन को धर्म नहीं कहा जाएगा।।
प्रश्न शत्रुबोध के विलोप का नहीं ।
धर्म विवेक का विलुप्त होना ही सबसे बड़ी समस्या है।
अन्यथा तो जैसा रामचरितमानस में कहा है:-
"
हित अनहित पशु पक्षिउ जाना ।"
अर्थात कौन मित्र है ,कौन शत्रु ,कौन हमारा हित चाहता है और कौन अहित इसे तो पशु और पक्षी भी समझ लेते हैं ।
तब आत्मबोध और मुक्ति की साधना से मनुष्य पशु और पक्षी से भी गया गुजरा नहीं हो जाता ।
शत्रुबोध युद्ध के भाव जगत का शब्द है।
जब युद्ध का कोई भाव ही नहीं है ,जब अपना धर्म गंवाकर थोड़े से भौतिक सुख के लिए किसी भी तरह गिर कर उन्हें प्राप्त करने का भाव प्रधान हो गया है तो उस समय शत्रु बोध कहां से आएगा?
प्रारंभ में गांधी जी में यह बोध जागृत था।
गांधी जी ने कहा था कि मैं अपने समय का सबसे बड़ा धर्म योद्धा हूँऔर अंग्रेज अधर्म के प्रतिनिधि हैं। इसलिए मैं उनसे धर्म युद्ध कर रहा हूं ।।
बाद में ईसाइयों के मित्र बनने के बाद वह प्राय: अंग्रेजों के प्रति आत्मीयता दिखाने लगे ।
कभी उन्हें अपना शत्रु कहना ,उनके विरुद्ध धर्म युद्ध की घोषणा करना और कभी फिर उन्हें ही भाई या मित्र और अपना सगा बताने लगना :-
यह सब राजनीतिक खेल हैं।यह कोई बुद्धि का दोष नहीं है ।
गांधीजी में शत्रु बोध नहीं था, यह नहीं मानना चाहिए। गांधीजी में आत्म बोध की साधना की भी ललक थी और शत्रुओं से युद्ध की भी ललक थी।।
परंतु जीवन के किसी मोड़ में वे राजनीतिक लालसाओं के प्रभाव में बार-बार बदलते रहे ।
इसीलिए जितनी अधिक उनकी समझ थी,
उतने यश के भागी वे नहीं हुए ।क्योंकि वैसे कर्म उन्होंने नहीं किये।
परंतु बाद के राजनेताओं से गांधीजी की तुलना करना निरर्थक है।
1947 के बाद के सभी भारतीय राजनेता विवेक में और धर्म की सामान्य समझ में गांधी जी से बहुत नीचे हैं।
वस्तुतः तो गांधीजी का दोष भी इसी लिए और अधिक है कि वह धर्म के सामान्य स्वरूप को अच्छी तरह समझते थे और फिर भी उन्होंने यश की लालसा में या राजनीतिक प्रयोजन सिद्ध होने की लालसा में बहुत सा घालमेल किया ।।
इस प्रकार आत्मबोध और मुक्ति की कामना या मुक्ति का बोध ,
शत्रुबोध को बाधित नहीं करता ।शत्रुबोध को बाधित करते हैं लोभ तथा भय और लिप्सा।
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