कर्मों का आरम्भ किये बिना मनुष्य नैष्कम्र्य

कर्मों का आरम्भ किये बिना मनुष्य नैष्कम्र्य

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।। 3।।

प्रश्न-यहाँ ‘मुनेः’ इस पद से किस पुरुष का ग्रहण करना चाहिय?

उत्तर- ‘मुनेः’ यह पद यहाँ उस पुरुष के लिए विशेषण रूप में आया है जो परमात्मा की प्राप्ति में हेतु रूप योगारूढ़ अवस्था को प्राप्त करना चाहता है। अतएव इससे स्वभाव से ही परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करने वाले मननशील साधक का ग्रहण करना चाहिये।

प्रश्न-योगारूढ़ अवस्था की प्राप्ति में कौन से कर्म हेतु हैं?

उत्तर-वर्ण, आश्रम और अपनी स्थिति के अनुकूल जितने भी शास्त्र विहित कर्म हैं, फल और आसक्ति का त्याग करके किये जाने पर वे सभी योगारूढ़-अवस्था की प्राप्ति में हेतु हो सकते हैं।

प्रश्न-योगारूढ़-अवस्था की प्राप्ति में कर्मों को हेतु क्यों बतलाया? कर्मों का त्याग करके एकान्त में ध्यान का अभ्यास करने से भी तो योगारूढ़ावस्था प्राप्त हो सकती है?

उत्तर-एकान्त में परमात्मा के ध्यान का अभ्यास करना भी तो एक प्रकार कर्म ही है। और इस प्रकार ध्यान का अभ्यास करने वाले साधक को भी शौच, स्नान तथा खान-पानादि शरीर-निर्वाह के योग्य क्रिया तो करनी ही पड़ती है। इसलिये अपने वर्ण, आश्रम, अधिकार और स्थिति के अनुकूल जिस समय जो कर्तव्य-कर्म हों, फल और आसक्ति का त्याग करके उनका आचरण करना योगारूढ़-अवस्था की प्राप्ति में हेतु है-यह कहना ठीक ही है। इसीलिये तीसरे अध्याय के चैथे श्लोक में भी कहा है कि कर्मों का आरम्भ किये बिना मनुष्य नैष्कम्र्य अर्थात् योगारूढ़-अवस्था को नहीं प्राप्त हो सकता।

प्रश्न-यहाँ ‘शमः‘ इस पद का अर्थ स्वरूपतः क्रियाओं का त्याग न मानकर सर्व-संकल्पों का अभाव क्येां माना गया?

उत्तर-दूसरे और चैथे श्लोक में संकल्पों के त्याग का प्रकरण है। ‘शमः’ पद का अर्थ भी मन को वश में करके शान्त करना होता है। अठारहवें अध्याय के बयालीसवें श्लोक में भी ‘शम’ शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है। और मन वश में होकर शान्त हो जाने पर ही संकल्पाों का सर्वथा अभाव होता है। इसके अतिरिक्त, कर्मों का स्वरूपतः सर्वथा त्याग हो भी नहीं सकता। अतएव यहाँ ‘शमः’ का अर्थ सर्व संकल्पों का अभाव मानना ही ठीक है।

प्रश्न-योगारूढ़ पुरुष के ‘शम’ को कर्मों का कारण माना जाय तो क्या हानि है?

उत्तर-‘शम’ शब्द सर्व संकल्पों के अभाव रूप शान्ति का वाचक है। इसलिये वह कर्म का कारण नहीं बन सकता। योगारूढ़ पुरुष द्वारा जो कुछ चेष्टा होती है, उनमें तो उनके और लोगों के प्रारब्ध ही हेतु हैं। अतः ‘शम‘ को कर्म का हेतु मानना युक्ति संगत नहीं है। उसे तो परमात्मा की प्राप्ति का हेतु मानना ही ठीक है।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्व संकल्प संन्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते।। 4।।

प्रश्न-यहाँ इन्द्रियों के विषय में और कर्मों में केवल आसक्ति का त्याग बतलाया, कामना का त्याग नहीं बतलाया। इसका क्या कारण है

उत्तर-आसक्ति से ही कामना उत्पन्न होती है। यदि विषयों में और कर्मों में आसक्ति न हरे तो कामना का अभाव तो अपने आप ही हो जायगा। कारण के बिना कार्य हो ही नहीं सकता। अतएव आसक्ति के अभाव में कामना का अभाव भी समझ लेना चाहिये।

प्रश्न-‘सर्व संकल्प संन्यास’ का अर्थ है? और समस्त संकल्पों का त्याग हो जाने के बाद किसी भी विषय का ग्रहण या कर्म का सम्पादन कैसे सम्भव है?

उत्तर-यहाँ ‘संकल्पों के त्याग’ का अर्थ स्फरणा मात्र का सर्वथा त्याग नहीं है, यदि ऐसा माना जाय तो योगारूढ़ अवस्था का वर्णन ही असम्भव हेा जाय। जिसे वह अवस्था प्राप्’त नहीं है, वह तो उसका तत्त्व नहीं जानता; और जिसे प्राप्त है, वह बोल नहीं सकता। फिर उसका वर्णन ही कौन करे? इसके अतिरिक्त, चैथे अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने स्पष्ट ही कहा है कि जिस महापुरूष के समस्त कर्म कामना और संकल्प के बिना ही भलभाँति होेते हैं, उसे पण्डित कहते हैं।’ और वहाँ जिस महापुरुष की ऐसी प्रशंसा की गयी है, हव योगारूढ़ नहीं है-ऐसा नहीं कहा जा सकता। ऐसी अवस्था में यह नहीं माना जा सकता कि संकल्प रहित पुरुष के द्वारा कर्म नहीं होते। इससे यही सिद्ध होता है कि संकल्पों के त्याग का अर्थ स्फरणा या वृत्ति मात्र का त्याग नहीं है। ममता, आसक्ति और द्वेषपूर्ण जो सांसारिक विषयों का चिन्तन किया जाता है, उसे ‘संकल्प’ कहते हैं। ऐसे संकल्पों का पूणज्र्ञतया त्याग ही ‘सर्व संकल्प’ संन्यास’ है। ऐसा त्याग कर्मों के सुचारू रूप से सम्पादन होने में कोई बाधा हनीं देता। जिनकी बुद्धि में भगवान् के सिवा किसी की स्थिति ही नहीं रह गयी है, उनके द्वारा भवगद् बुद्धि में भगवान् के सिवा किसी की स्थिति ही नहीं रह गयी है, उनके द्वारा भगवद् बुद्धि से जो विषयों का ग्रहण या त्याग होता है, उसे संकल्प जनित नहीं कहा जा सकता। ऐसे त्याग और ग्रहण रूप कर्म तो ज्ञज्ञनी मात्माओं के द्वारा भी हो सकते हैं। ऐसे ही महात्मा के लिये भगवान् ने कहा है कि ‘वह सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें हो बरतता है’।

प्रश्न-मनुष्य भोगों की प्राप्ति के लिये ही कर्म करता है और उनमें आसक्त होता है। अतएव शब्दादि विषयों में आसक्ति का अभाव बता देना ही यथेष्ट था, कर्मों में आसक्ति का अभाव बतलाने की क्या आवश्कता थी? 
उत्तर-भोगों में आसक्ति का त्याग होने पर भी कर्मों में आसक्ति रहना सम्भव है, क्योंकि जिनका कोई फल नहीं है, ऐसे व्यर्थ कर्मों में भी प्रमादी मनुष्यों की आसक्ति देखी जाती है। अतएव आसक्ति का सर्वथा अभाव दिखलाने के लिये ऐसा कहना ही चाहिये।
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