मननशील को कहते हैं मुनि

मननशील को कहते हैं मुनि

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-इन्द्रिय, मन और बुद्धि को जीतने का क्या स्वरूप है और उन्हंे कैसे एवं क्यों जीतना चाहिये?

उत्तर-इन्द्रियाँ चाहे जब, चाहे जिस विषय में स्वच्छन्द चली जाती हैं, मन सदा चंचल रहता है और अपनी आदत को छोड़ना ही नहीं चाहता एवं बुद्धि एक परम निश्चय पर अटल नहीं रहती-यही इनका स्वतंत्र या उच्छृंखल हो जाना है। विवेक और वैराग्य पूर्वक अभ्यास द्वारा इन्हें सुश्रृंखल, आज्ञाकारी और अन्तर्मुखी या भगवन्निष्ठ बना लेना ही इनको जीतना है। ऐसा कर लेने पर इन्द्रियाँ स्वच्छंदता से विषयों में न रमकर हमारे इच्छानुसार जहाँ हम कहेंगे वहीं रुकी रहेंगी, मन हमारे इच्छानुसार एकाग्र हो जायगा और बुद्धि एक निष्ठ निश्चय पर अचल और अटल रह सकेगी। ऐसा माना जाता है और यह ठीक ही है कि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने से प्रत्याहार (इन्द्रिय वृत्तियों का संयत होना), मन को वश में कर लेने पर धारणा (चित्त का एक देश में स्थिर करना) और बुद्धि को अपने अधीन बना लेने पर ध्यान (बुद्धि को एक ही निश्चय पर अचल रखना) सहज हो जाता है। इसलिये ध्यान योग में इन तीनों को वश में कर लेना बहुत ही आवश्यक है।

प्रश्न-‘मोक्ष परायणः’ पद किसका वाचक है?

उत्तर-जिसे परमात्मा की प्राप्ति, परम गति, परम पद की प्राप्ति या मुक्ति कहते हैं उसी का नाम मोक्ष है। यह अवस्था मन-वाणी से परे है। इतना ही कहा जा सकता है कि इस स्थिति में मनुष्य सदा के लिये समस्त कर्म बन्धनों से सर्वथा छूटकर अनन्त और अद्वितीय परम कल्याण स्वरूप और परमानन्द स्वरूप हो जाता है। इस मोक्ष या परमात्मा की प्राप्ति के लिए जिस मनुष्य ने अपने इन्द्रिय, मन और बुद्धि को सब प्रकार से तन्मय बना दिया है, जो नित्य-निरन्तर परमात्मा की प्राप्ति के प्रयत्न में ही संलग्न है, जिसका एकमात्र उद्देश्य केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना है और जो परमात्मा के सिवा किसी भी वस्तु को प्राप्त करने योग्य नहीं समझता, वही ‘मोक्ष परायण’ है।

प्रश्न-यहाँ ‘मुनि;’ पद किसके लिए आया है?

उत्तर-‘मुनि’ मननशील को कहते हैं, जो पुरुष ध्यानकाल की भाँति व्यवहार काल में भी परमात्मा की सर्व व्यापकता का दृढ़ निश्चय होने के कारण सदा परमात्मा का ही मनन करता रहता है, वही ‘मुनि’ है।

प्रश्न-‘विगतेच्छाभय क्रोधः’ इस विशेषण का अभिप्राय क्या है?

उत्तर-इच्छा होती है किसी भी अभाव का अनुभव होने पर; भय होता है अनिष्ट की आशंका से तथा क्रोध होता है कामना में विघ्न पड़ने पर अथवा मन के अनुकूल कार्य न होने पर। उपर्युक्त प्रकार से ध्यान योग्य का साधन करते-करते जो पुरुष सिद्ध हो जाता है, उसे सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा परमात्मा का अनुभव होता है, वह कहीं उनका अभाव देखता ही नहीं; फिर उसे इच्छा किस बात की होती? जब एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं और नित्य सत्य सनातन अनन्त अविनाशी परमात्मा के स्वरूप में कभी कोई च्युति होती ही नहीं, तब अनिष्ट की आशंका जनित भय भी क्यों होने लगा? और परमात्मा की नित्य एवं पूर्ण प्राप्ति हो जाने के कारण जब कोई कामना या मनोरथ रहता ही नहीं, तब क्रोध भी किस पर और कैसे हो? अतएव इस स्थिति में उसके अन्तःकरण में न तो व्यवहार काल में और न स्वप्न में, कभी किसी अवस्था में भी, किसी प्रकार की इच्छा ही उत्पन्न होती है, न किसी भी घटना से किसी प्रकार का भय ही होता है और न किसी भी अवस्था में क्रोध ही उत्पन्न होता है।

प्रश्न-यहाँ ‘एव’ का प्रयोग किस अर्थ में है और ऐसा पुरुष ‘सदा मुक्त ही है’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘एव’ यह अव्यय निश्चय का बोधक है। जो महापुरुष उपर्युक्त साधनों द्वारा इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह ध्याना काल में या व्यवहार काल में, शरीर रहते या शरीर छूट जाने पर, सभी अवस्थाओं में सदा मुक्त ही है-संसार बन्धन से सदा के लिये सर्वथा छूटकर परमात्मा को प्राप्त हो चुका है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोक महेश्वरम्।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्ति मृच्छति।। 29।।

प्रश्न-‘यज्ञ’ और ‘तप’ से क्या समझना चाहिये, भगवान् उनके भोक्ता कैसे हैं और उनको भोक्ता जानने से मनुष्य को शान्ति कैसे मिलती है?

उत्तर-अहिंसा, सत्य आदि धर्मों का पालन, देवता, ब्राह्मण, माता-पिता आदि गुरुजनों का सेवन-पूजन, दीन-दुखी, गरीब और पीड़ित जीवों की स्नेह और आदर युक्त सेवा और उनके दुःखनाश के लिये किये जाने वाले उपयुक्त साधन एवं यज्ञ, दान आदि जितने भी शुभ कर्म हैं, सभी का समावेश ‘यज्ञ’ और ‘तप’ शब्दों में समझना चाहिये। भगवान् सबके आत्मा हैं। अतएव देवता, ब्राह्मण-दीन-दुखी आदि के रूप में स्थित होकर भगवान् ही समस्त सेवा-पूजादि ग्रहण कर रहे हैं। इसलिये वे ही समस्त यज्ञ और तपों के भोक्ता हैं। भगवान् के तत्त्व और प्रभाव को न जानने के कारण ही मनुष्य जिनकी सेवा-पूजा करते हैं, उन देव-मनुष्यादि को ही यज्ञ और सेवा आदि के भोक्ता समझते हैं, इसी से वे अल्प और विनाशी फल के भागी होते हैं। उनको यथार्थ शान्ति नहीं मिलती। परन्तु जो पुरुष भगवान् के तत्त्व और प्रभाव को जानता है, वह सबके अंदर आत्म रूप से विराजित भगवान् को ही देखता है। इस प्रकार प्राणि मात्र में भगवद्वद्धि हो जाने के कारण जब वह उनकी सेवा करता है, तब उसे यही अनुभव होता है कि मैं देव-ब्राह्मण या दीन-दुखी आदि के रूप में अपने परम पूजनीय, परम प्रेमास्पद सर्व व्यापी श्री भगवान् की ही सेवा कर रहा हूँ।

मनुष्य जिसको कुछ भी श्रेष्ठ या सम्मान्य समझता है, जिसमें थोड़ी भी श्रद्धा भक्ति होती है, जिसके प्रति कुछ भी आन्तरिक सच्चा प्रेम होता है, उसकी सेवा में उसको बड़ा भारी आनन्द और विलक्षण शान्ति मिलती है। क्या पितृ भक्त पुत्र अपने पिता की, स्नेहमयी माता पुत्र की और प्रेम प्रतिमा पत्नी अपने पति की सेवा करने में कभी थकते हैं? क्या सच्चे शिष्य या अनुयायी मनुष्य अपने श्रद्धेय गुरु या पथदर्शक महात्मा की सेवा से किसी भी कारण से हटना चाहते हैं? जो पुरुष या स्त्री जिनके लिये गौरव, प्रभाव या प्रेम के पात्र होते हैं, उनकी सेवा के लिए उनके अंदर क्षण-क्षण में नयी-नयी उत्साह-लहरी उत्पन्न होती है; ऐसा मन होता है कि इनकी जितनी सेवा की जाय उतनी ही थोड़ी है। वे इस सेवा से यह नहीं समझते कि हम इनका उपकार कर रहे हैं; उनके मन में इस सेवा से अभिमान नहीं उत्पन्न होता, वरं ऐसी सेवा का अवसर पाकर वे अपना सौभाग्य समझते हैं और जितनी ही सेवा बनती है, उनमें उतनी ही विनयशीलता और सच्ची नम्रता बढ़ती है। वे अहसान तो क्या करें, उन्हें पद-पद पर यह डर रहता है कि कहीं हम इस सौभाग्य से वंचित नहीं हो जायँ। वे ऐसा इसीलिये करते हैं कि इससे उन्हें अपने चित्त में अपूर्व शान्ति का अनुभव होता है; परन्तु यह शान्ति उन्हें सेवा से हटा नहीं देती क्योंकि उनका चित्त निरन्तर आनन्दारित रेक से छलकता रहता है और वे इस आनन्द से न अघाकर उत्तरोत्तर अधिक-से-अधिक सेवा ही करना चाहते हैं। जब सांसारिक गौरव, प्रभाव और प्रेम में सेवा इतनी सच्ची, इतनी लगन भरी और इतनी शान्तिप्रद होती है, तब भगवान् का जो भक्त सबके रूप में अखिल जगत् के परमपूज्य, देवाधि-देव, सर्व शक्तिमान, परम गौरव तथा अचित्य प्रभाव के नित्य धाम अपने परम प्रियतम भगवान् को पहचानकर अपनी विशुद्ध सेवावृत्ति को हृदय के सच्चे विश्वास और अविरल प्रेम की निरन्तर उन्हीं की ओर बहने वाली पवित्र और सुधामयी मधुर धारा में पूर्णतया डुबा-डुबाकर उनकी पूजा करता है, तब उसे कितना और कैसा अलौकिक आनन्द तथा कितनी और कैसी अपूर्व दिव्य शान्ति मिलती होगी-इस बात को कोई नहीं बतला सकता। जिनको भगवत कृपा से ऐसा सौभाग्य प्राप्त होता है, वे ही वस्तुतः इसका अनुभव कर सकते हैं।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ