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सबसे श्रेष्ठ है परमात्मा का तत्वज्ञान

सबसे श्रेष्ठ है परमात्मा का तत्वज्ञान

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यहाँ पापों से तरने की बात कहने का क्या भाव है, क्योंकि सकाम भाव से किये हुए पुण्य कर्म भी तो मनुष्य को बाँधने वाले हैं?

उत्तर-पुण्य कर्म भी सकाम भाव से किये जाने पर बन्धन के हेतु होते हैं; अतः समस्त कर्म बन्धनों से सर्वथा छूटने पर ही समस्त पापों से तर जाता है, यह ठीक ही है किन्तु पुण्य कर्मों का त्याग करने में तो मनुष्य स्वतंत्र है ही, उनके फलक का त्याग तो वह जब चाहे तभी कर सकता है; परन्तु ज्ञान के बिना पापों से तर जाना उसके हाथ की बात नहीं है। इसलिये पापों से तरना कह देने से पुण्य कर्मों के बन्धन से मुक्त होने की बात उसके अन्तर्गत ही आ जाती है।

प्रश्न-ज्ञान रूप नौका के द्वारा सम्पूर्ण पाप समुद्र से भली भाँति तर जाना क्या है?

उत्तर-जिस प्रकार नौका में बैठकर मनुष्य अगाध जल राशि पर तैरता हुआ उसके पार चला जाता है, उसी प्रकार ज्ञान में स्थित होकर (ज्ञान के द्वारा) अपने को सर्वथा संसार से असंग, निर्विकार, नित्य और अनन्त समझकर पहले के अनेक जन्मों में तथा इस जन्म में किये हुए समस्त पाप समुदाय को जो अतिक्रमण कर जाना है-अर्थात् समस्त कर्म बन्धनों से सदा के लिये सर्वथा मुक्त हो जाना है, यही ज्ञान रूप नौका के द्वारा सम्पूर्ण पाप समुदाय से भलीभाँति तर जाना है।

प्रश्न-इस श्लोक में ‘एव’ पद का क्या भाव है?

उत्तर-‘एव’ पद यहाँ निश्चय के अर्थ में है। उसका भाव यह है कि काठ की नौका में बैठकर जल राशि पर तैरने वाला मनुष्य तो कदाचित् उस नौका के टूट जाने से या उसमें छेद हो जाने अथवा तूफान आने से नौका के साथ-ही-साथ स्वयं भी जल में डूब सकता है पर यह ज्ञान रूप नौका नित्य है; इसका अवलम्बन करने वाला मनुष्य निःसन्देह पापों से तर जाता है, उसके पतन की जरा भी आशंका नहीं रहती।

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्ुकरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मात्कुरुते तथा। 37।।

प्रश्न-इस श्लोक में अग्नि की उपमा देते हुए ज्ञान रूप अग्नि के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का भस्ममय किया जाना बतलाकर क्या बात कही गयी है

उत्तर-इससे यह बात समझायी गयी है कि जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि समस्त काष्ठादि ईंधन के समुदाय को भस्म रूप बनाकर उसे नष्ट कर देता है, उसी प्रकार तत्त्वज्ञान रूप अग्नि जितने भी शुभाशुभ कर्म हैं, उन सबको-अर्थात् उनके फलरूप सुख-दुःख भोगों तथा उनके कारण रूप अविद्या और अहंता-ममता, राग-द्वेष आदि समस्त विकारों के सहित समस्त कर्मों को नष्ट कर देता है। श्रुति में भी कहा है-

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावे।।

अर्थात उस परावर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर इस ज्ञानी के जड़-चेतन की एकता रूप हृदय ग्रन्थिका का भेदन हो जाता है; जड़ देहादि में जो अज्ञान से आत्माभिमान हो रहा है, उसका तथा समस्त संशयों का नाश हो जाता है; फिर परमात्मा के स्वरूप ज्ञान के विषय में किसी प्रकार का किंचित मात्र भी संशय या भ्रम नहीं रहता और समस्त कर्म फल सहित नष्ट हो जाते हैं।

इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में ‘ज्ञानग्निदग्धकर्माणम्’ विशेषण से भी यही बात कही गयी है।

इस जन्म और जन्मान्तर में किये हुए समस्त कर्म संस्कार रूप में मनुष्य के अन्तःकरण में एकत्रित रहते हैं, उनका नाम ‘संचित’ कर्म है। उनमें से जो वर्तमान जन्म में फल देने के लिये प्रस्तुत हो जाते हैं, उनका नाम ‘प्रारब्ध’ कर्म है और वर्तमान समय में किये जाने वाले कर्मों को ‘क्रियमाण’ कहते हैं। उपर्युक्त तत्त्वज्ञान रूप अग्नि के प्रकट होते ही समस्त पूर्व संचित संस्कारों का अभाव हो जाता है। मन, बुद्धि इन्द्रिय और शरीरादि के साथ प्रारब्ध भोगों का सम्बन्ध होते हुए भी उन भोगों के कारण उसके अन्तःकरण में हर्ष-शोक आदि विकार नहीं हो सकते। इस कारण वे भी उसके लिए नष्ट हो जाते हैं और क्रियमाण कर्मों में उसका कर्तृत्वाभिमान तथा ममता, आसक्ति और वासना न रहने के कारण उनके संस्कार नहीं बनते; इसलिये वे कर्म वास्तव में कर्म ही नहीं हैं।

इस प्रकार उसके समस्त कर्मों का नाश हो जाता है और जब कर्म ही नष्ट हो जाते हैं, तब उनका फल तो हो ही कैसे सकता? और बिना संचित संस्कारों के उसमें राग-द्वेष तथा हर्ष-शोक आदि विकारों की वृत्तियाँ भी कैसे हो सकती है? अतएव उसके समस्त विकार और समस्त कर्म फल भी कर्मों के साथ ही नष्ट हो जाते हैं।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

ततस्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।। 38।।

प्रश्न-इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसन्देह कुछ भी नहीं है, इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर-इस वाक्य से यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि इस जगत् में यज्ञ, दान, तप, सेवा-पूजा, व्रत-उपवास, प्राणायाम, शम-दम, संयम और भजन-ध्यान आदि जितने भी साधन तथा गंगा-यमुना, त्रिवेणी आदि जितने भी तीर्थ मनुष्य के पापों का नाश करके उसे पवित्र करने वाले हैं, उनमें से कोई भी इस यथार्थ ज्ञान की बराबरी नहीं कर सकता; क्योंकि वे सब इस तत्त्वज्ञान के साधन हैं और यह ज्ञान उन सबका फल (साध्य) है; वे सब इस ज्ञान की उत्पत्ति में सहायक, होने के कारण ही पवित्र माने गये हैं। इससे उत्पत्ति में सहायक होने के कारण ही पवित्र माने गये हैं। इससे मनुष्य परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को भलीभाँति जान लेता है; उसमें झूठ, कपट, चोरी आदि पापों का, राग-द्वेष हर्ष-शोक, अहंता-ममता आदि समस्त विकारों का और अज्ञान का सर्वथा अभाव हो जाने से वह परम पवित्र बन जाता है। उसके मन, इन्द्रिय और शरीर भी अत्यन्त पवित्र हो जाते हैं; इस कारण श्रद्धापूर्वक उस महापुरुष का दर्शन, स्पर्श, वन्दन, चिन्तन आदि करने वाले तथा उसके साथ वार्तालाप करने वाले दूसरे मनुष्य भी पवित्र हो जाते हैं। इसलिये संसार में परमात्मा के तत्त्वज्ञान के समान पवित्र वस्तु दूसरी कुछ भी नहीं है।
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