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सरकारी कर्मचारी अगर पाँच जगह कार्य करे तो भी उन्हें एक ही वेतन, पर नेताओं को पाँच जगह लाभ क्यों?

सरकारी कर्मचारी अगर पाँच जगह कार्य करे तो भी उन्हें एक ही वेतन, पर नेताओं को पाँच जगह लाभ क्यों?

— डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारतीय लोकतंत्र में सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि जहाँ एक ओर सरकारी कर्मचारी कठोर अनुशासन, नियम और आचार संहिता से बंधे रहते हैं, वहीं दूसरी ओर नेताओं को उन नियमों से परे मानो किसी अलग ही दुनिया में जीवन जीने की स्वतंत्रता प्राप्त है। यह विडंबना आम आदमी को हमेशा खटकती रही है।

सोचिए, यदि कोई सरकारी कर्मचारी अपनी निर्धारित जगह के अलावा कहीं और काम करता पकड़ा जाए, तो उसे अनुशासनहीनता, अनियमितता और नियम उल्लंघन का दोषी मानकर सज़ा दी जाती है। यहाँ तक कि यदि वह पाँच जगह काम करे, तो भी उसे एक ही वेतन मिलेगा और बाकी काम अवैध माने जाएंगे। लेकिन नेता यदि सांसद हैं तो वे विधायक भी बन सकते हैं, पार्टी में भी पद ले सकते हैं, सरकारी बोर्डों और समितियों में भी अध्यक्ष/सदस्य बन सकते हैं और वहाँ से वेतन, भत्ता, गाड़ी, बंगला, सुरक्षा और अन्य सुविधाएँ भी उठा सकते हैं।

यही वह बिंदु है, जहाँ से सवाल उठता है—क्या यह लोकतांत्रिक समानता है? क्या यही न्याय है कि कर्मचारी के लिए एक पद, एक वेतन और नेता के लिए पाँच पद, पाँच लाभ?
सरकारी कर्मचारियों पर लागू नियम

  • सरकारी कर्मचारियों की सेवा शर्तें सख्त होती हैं। उनके ऊपर आचरण नियमावली लागू रहती है।
  • उन्हें केवल एक ही विभाग या पद पर काम करने की अनुमति होती है।
  • किसी भी अतिरिक्त काम (चाहे पार्ट-टाइम ही क्यों न हो) के लिए उन्हें सरकार से अनुमति लेनी होती है।
  • दोहरी नौकरी, निजी व्यवसाय या लाभ के पद धारण करना उनके लिए वर्जित है।
  • यहाँ तक कि अगर वे शाम को ट्यूशन पढ़ाएँ या किसी संस्थान में परामर्श दें, तो भी उन्हें दंडित किया जा सकता है।


यदि वे 5 जगह काम करें, तब भी उन्हें केवल एक वेतन ही मिलेगा और बाकी सब कार्य गैरकानूनी माने जाएंगे।

यानी नियम यह है कि—“एक व्यक्ति, एक पद, एक वेतन”।

नेताओं की स्थिति

अब नेताओं को देखिए।

  • एक ही व्यक्ति सांसद भी होता है और पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी।
  • कोई विधायक है तो साथ ही सरकारी बोर्ड का चेयरमैन भी।
  • कोई नेता राज्यसभा सांसद है तो साथ ही किसी निगम का सलाहकार भी।
  • इनमें से प्रत्येक पद से मिलने वाले वेतन, भत्ते और सुविधाएँ वे बेहिचक उठाते हैं।
  • उन्हें कोई नहीं रोकता। न उन पर “लाभ का पद” का नियम सही मायने में लागू होता है, न ही कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही होती है।


उदाहरण के लिए—

एक सांसद को वेतन, यात्रा भत्ता, आवास, बिजली-पानी, टेलीफोन, मुफ्त रेलवे-हवाई यात्रा और सुरक्षा सुविधा मिलती है।

यदि वही सांसद किसी संसदीय समिति का अध्यक्ष है, तो वहाँ से अलग भत्ता मिलता है।

अगर वही व्यक्ति किसी पार्टी संगठन का पदाधिकारी है, तो वहाँ से भी लाभ उठाता है।

यदि राज्य सरकार उसे किसी बोर्ड या निगम का अध्यक्ष बना देती है, तो वहाँ से गाड़ी, स्टाफ और दफ्तर मिलता है।

यानी नेताओं के लिए नियम है—“एक व्यक्ति, अनेक पद, अनेक लाभ”।
वेतन और सुविधाओं का अंतर

यदि हम तुलना करें तो सरकारी कर्मचारियों और नेताओं के बीच का फर्क और स्पष्ट होता है।

कर्मचारी – निश्चित वेतन, ग्रेड-पे, डीए, एचआरए और पीएफ।

नेता – वेतन के साथ-साथ भारी-भरकम भत्ते, मुफ्त यात्रा, मुफ्त आवास, बिजली-पानी-फोन मुफ्त, विशेषाधिकार पास और सुरक्षा।

यहाँ तक कि कर्मचारी पेंशन व्यवस्था से बाहर हो चुके हैं, लेकिन नेताओं के लिए एक दिन सांसद/विधायक रहने पर भी जीवनभर पेंशन का प्रावधान है।

इतिहास और परंपरा

यह असमानता आज की नहीं है। स्वतंत्रता के बाद जब संविधान बना तो नेताओं को जनता का प्रतिनिधि मानकर उन्हें विशेषाधिकार दिए गए। उस समय सोचा गया था कि ये सुविधाएँ उनके कार्य करने में मददगार होंगी।

लेकिन धीरे-धीरे यह परंपरा विशेषाधिकार से विलासिता में बदल गई।

पहले केवल यात्रा भत्ता मिलता था, अब मुफ्त हवाई यात्रा है।

पहले सादा आवास मिलता था, अब आलीशान बंगले हैं।

पहले जनता से मिलने-जुलने की बात थी, अब सुरक्षा कवच और लाल बत्ती है।
यह परंपरा टूटने के बजाय और गहरी होती चली गई।
राजनीतिक तर्क और विरोधाभास

नेताओं के समर्थक कहते हैं कि—

“जनप्रतिनिधि 24 घंटे जनता की सेवा में लगे रहते हैं, इसलिए उन्हें अधिक सुविधाएँ मिलनी चाहिए।”

“उन्हें सुरक्षा और साधन देना ज़रूरी है, वरना वे प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएँगे।”

“कर्मचारी और नेता की भूमिका अलग है, इसलिए उनकी तुलना नहीं की जा सकती।”

लेकिन सवाल यह है कि—क्या जनता का पैसा केवल नेताओं की सुविधाओं पर खर्च होना चाहिए? क्या यह न्याय है कि करदाताओं के पैसे से नेताओं को बार-बार वेतन और भत्ते मिलें और कर्मचारी को एक वेतन पर ही टिका दिया जाए?
जनता की नज़र से

जनता का अनुभव बड़ा सीधा है।

जब कर्मचारी को एक ही वेतन मिलता है, तो उसे लगता है कि उसके साथ न्याय हो रहा है।

लेकिन जब नेता पाँच पदों पर बैठकर पाँच जगह से लाभ उठाते हैं, तो जनता को धोखा महसूस होता है।

यही कारण है कि आज आम लोगों में नेताओं के प्रति नाराज़गी बढ़ी है। लोग कहते हैं—“जो हमें उपदेश देते हैं, वे खुद नियमों का पालन क्यों नहीं करते?”
लोकतंत्र का नैतिक सवाल

भारतीय संविधान समानता का अधिकार देता है। लेकिन व्यवहार में समानता केवल नागरिकों पर लागू होती है, नेताओं पर नहीं।

यहाँ लोकतंत्र का मूल सिद्धांत कमजोर पड़ जाता है। यदि कर्मचारी और नेता दोनों ही जनसेवक हैं, तो फिर उनके नियम अलग क्यों?

सवाल यह है कि—

क्या लोकतंत्र में दो तरह के नियम होने चाहिए?

क्या जनता के प्रतिनिधि को जनता से अलग और विशेष दर्जा मिलना चाहिए?

क्या यह नैतिक रूप से सही है कि नेता अनेक पदों से लाभ उठाएँ और आम कर्मचारी केवल एक वेतन तक सीमित रहे?

विदेशों के उदाहरण

कई देशों में नेताओं पर सख्त नियम लागू हैं।

  • अमेरिका में सांसद और सीनेटर को केवल वेतन मिलता है, वह भी उतना ही जितना एक उच्चाधिकारी को मिलता है।
  • जर्मनी में सांसदों को सीमित भत्ता और वेतन मिलता है, अतिरिक्त सुविधाएँ नहीं।
  • जापान में नेताओं पर सख्त निगरानी रहती है और उन्हें किसी निजी लाभ के पद पर बैठने की अनुमति नहीं होती।


यानी अन्य लोकतंत्रों में नेताओं और जनता के बीच इतना बड़ा अंतर नहीं दिखता। भारत में यह अंतर बहुत ज्यादा है।
सुधार की आवश्यकता

अब समय आ गया है कि इस असमानता को खत्म किया जाए।


एक पद, एक वेतन/सुविधा का सिद्धांत नेताओं पर भी लागू होना चाहिए।


सांसद या विधायक बनने के बाद उन्हें अन्य सरकारी बोर्ड, निगम या समितियों में पद नहीं लेना चाहिए।


उनकी पेंशन और भत्तों की व्यवस्था पर पुनर्विचार होना चाहिए।


जनता को यह अधिकार होना चाहिए कि वह नेताओं की सुविधाओं पर पारदर्शिता की माँग कर सके।


मीडिया और नागरिक समाज को इस मुद्दे पर दबाव बनाना चाहिए।
निष्कर्ष

आज जब देश की जनता महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार से जूझ रही है, तब नेताओं की असीमित सुविधाएँ और कर्मचारियों पर सख्त नियम लोकतंत्र के मूल भाव को आहत करते हैं।

यदि वास्तव में नेताओं को जनता का सेवक माना जाता है, तो उन्हें भी वही नियम मानने चाहिए जो आम कर्मचारियों पर लागू होते हैं। अन्यथा लोकतंत्र केवल नाम का रह जाएगा और व्यवहार में एक विशेष वर्ग के लिए विशेषाधिकारों की व्यवस्था बनकर रह जाएगा।

इसलिए ज़रूरत है कि एक आवाज़ उठे—
👉 “एक व्यक्ति, एक पद, एक वेतन” का नियम हर किसी पर लागू हो—चाहे वह कर्मचारी हो या नेता।

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