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कर्मबंधन से मुक्ति का ज्ञान

कर्मबंधन से मुक्ति का ज्ञान

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाला साधक भी मुक्त हो जाता है या सिद्ध पुरुष ही इस प्रकार देख सकता है?
उत्तर-मुक्त पुरुष के जो स्वाभाविक लक्षण होते हैं, वे ही साधक के लिये साध्य होते हैं। अतएव मुक्त पुरुष तो स्वभाव से ही इस तत्त्व को जानता है और साधक उनके उपदेश द्वारा जानकर उस प्रकार साधन करने से मुक्त हो जाता है। इसीलिये भगवान ने कहा है कि-‘मैं तुझे वह कर्म-तत्त्व बतलाऊँगा, जिसे जानकर तू कर्म-बन्धन से छूट जायगा।

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।। 19।।

प्रश्न-‘समारम्भाः’ पद का क्या अर्थ है और इसके साथ ‘सर्वे’ विशेषण जोड़ने का यहाँ क्या अभिप्राय है?

उत्तर-अपने वर्णाश्रम और परिस्थिति की अपेक्षा से जिसके लिये जो यज्ञ, दान, तप तथा जीविका और शरीर निर्वाह के योग्य शास्त्र समस्त कर्तव्य कर्म हैं, उन सबका वाचक यहाँ ‘समारम्भाः’ पद है। क्रियामात्र को आरम्भ कहते हैं; ज्ञानी के कर्म शास्त्र निषिद्ध या व्यर्थ नहीं होते-यह भाव दिखलाने के लिये ‘आरम्भ’ के साथ ‘सम’ उपसर्ग का प्रयोग किया गया है तथा ‘सर्वे’ विशेषण से यह भाव दिखलाया गया है कि साधन काल में मनुष्य के समस्त कर्म बिना कामना और संकल्प के नहीं होते, किसी-किसी कर्म में कामना और संकल्प का संयोग भी हो जाता है; पर साधन करते-करते जो सिद्ध हो गया है, उस महापुरुष के तो सभी कर्म कामना और संकल्प से रहित ही होते हैं; उसका कोई भी कर्म कामना और संकल्प से युक्त या शास्त्र विरुद्ध नहीं होता।

प्रश्न-‘कामसंकल्पवर्जिताः‘ इस पद में आये हुए ‘काम’ और ‘संकल्प’ शब्दों का क्या अर्थ है तथा इनसे रहित कर्म कौन-से हैं?

उत्तर-कोई भी कर्म बिना स्फुरण के नहीं हो सकता; पहले स्फुरणा होकर ही मन, वाणी और शरीर द्वारा कर्म किये जाते हैं। अन्य कर्मों की तो बात ही क्या है, बिना स्फुरणा के तो खाना-पीना और चलना-फिरना आदि शरीर निर्वाह के कर्म भी नहीं हो सकते; फिर इस श्लोक में ‘समारम्भाः’ पद से बतलाये हुए शास्त्र विहित कर्म कैसे हो सकते हैं? इस कारण यहाँ ‘संकल्प’ का अर्थ स्फुरणा मात्र मानना उचित प्रतीत नहीं होता।

प्रश्न-‘ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम् पद में ‘ज्ञानाग्नि’ शब्द किसका वाचक है? और उसके द्वारा कर्मों का दग्ध हो जाना क्या है?

उत्तर-किसी भी साधन के अनुष्ठान से उत्पन्न परमात्मा के यथार्थ ज्ञान का वाचक यहाँ ‘ज्ञानाग्नि’ शब्द है। जैसे अग्नि ईंधन को भस्म कर डालता है, वैसे ही ज्ञान भी समस्त कर्मो को भस्म कर देता है। इस प्रकार अग्नि की उपमा देने के लिये उसे यहाँ ‘ज्ञानाग्नि’ नाम दिया गया है। जैसे अग्नि द्वारा भुने हुए बीज केवल नाम मात्र के ही बीज रह

जाते हैं, उनमें अंकुरित होने की शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार ज्ञान रूप अग्नि के द्वारा जो समस्त कर्मों

के फल उत्पन्न करने की शक्ति का सर्वथा नष्ट हो जाना है-यही उन कर्मों का ज्ञानरूप अग्नि से भस्म हो जाना है।

प्रश्न-बुधाः पद किसका वाचक है और उपर्युक्त प्रकार से जो ज्ञानाग्नि दग्धकर्मा हो गया है, उसे वे पंडित कहते हैं- इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-यहाँ ‘बुधाः’ तत्त्वज्ञानी महात्माओं का वाचक, है और उपर्युक्त पुरुष को वे पण्डित कहते हैं-इस कथन से उपर्युक्त सिद्ध योगी की विशेष प्रशंसा की गयी है। अभिप्राय यह है कि कर्मों में ममता, आसक्ति़, अहंकार और उनसे अपना किसी प्रकार का कोई प्रयोजन न रहने पर भी उनका स्वरूपतः त्याग न करके लोकसंग्रह के लिये समस्त शास्त्र विहित कर्मों को विधि पूर्वक भलीभाँति करते रहना बहुत ही धीरता, वीरता, गम्भीरता और बुद्धिमत्ता का काम है; इसलिये ज्ञानी लोक भी उसे पण्डित (तत्त्वज्ञानी महात्मा ) कहते हैं।

त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः।

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः।। 20।।

प्रश्न-समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करना क्या है?

उत्तर-यज्ञ, दान और तप तथा जीविका और शरीर निर्वाह के जितने भी शास्त्रविहित कर्म हैं, उनमें जो मनुष्य की स्वाभाविक आसक्ति होती है जिसके कारण वह उन कर्मों को किये बिना नहीं रह सकता और कर्म करते समय उनमें इतना संलग्न हो जाता है कि ईश्वर की स्मृति या अन्य किसी प्रकार का ज्ञान तक नहीं रहता-ऐसी आसक्ति से सर्वथा रहित हो जाना, किसी भी कर्म में मन का तनिक भी आसक्त न होना-कर्मों में आसक्ति सर्वथा त्याग कर देना है और उन कर्मों से प्राप्त होने वाले इस लोक या परलोक के जितने भी लोग हैं-उन सब में जरा भी ममता, आसक्ति और कामना का न रहना कर्मों के फल में आसक्ति का त्याग कर देना है।

प्रश्न-इस प्रकार आसक्ति का त्याग करके ‘निराश्रय’ और ‘नित्यतृप्त’ हो जाना क्या है? 
उत्तर-आसक्ति का सर्वथा त्याग करके शरीर में अहंकार और ममता से सर्वथा रहित जो जाना और किसी भी सांसारिक वस्तु के या मनुष्य के आश्रित न होना अर्थात् अमुक वस्तु या मनुष्य से ही मेरा निर्वाह होता है, यही आधार है, इसके बिना काम ही नहीं चल सकता-इस प्रकार के भावों का सर्वथा अभाव हो जाना ही ‘निराश्रय’ हो जाना है। ऐसा हो जाने पर मनुष्य को किसी भी सांसारिक पदार्थ की किंचित मात्र भी आवश्यकता नहीं रहती, वह पूर्णकाम हो जाता है; उसे परमानन्द स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति हो जाने के कारण वह निरन्तर आनन्द में मग्न रहता है, उसकी स्थिति में किसी भी घटना से कभी जरा भी अन्तर नहीं पड़ता। यही उसका ‘नित्यतृप्त’ हो जाना है।
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