ध्रुवलोक के ऊपर है बैकुंठधाम की अवस्थिति -अशोक “प्रवृद्ध”

ध्रुवलोक के ऊपर है बैकुंठधाम की अवस्थिति -अशोक “प्रवृद्ध”

जन्म- मृत्यु का रहस्य, और मृत्यु के बाद मृतक के गतियों का रहस्य अक्सर ही मन में कौतूहल जगाते रहते हैं। वैदिक ग्रन्थों में मृत्यु होने के बाद की गतियों का उल्लेख है, और इसमें मृत्यु पश्चात मोक्ष प्राप्त कर सकने की स्थितियों का विस्तृत विवरण अंकित प्राप्य हैं, लेकिन वेदों में कहीं भी मृत्यु पश्चात स्वर्ग अथवा बैकुंठ गमन की बात नहीं कही गई है। फिर भी पौराणिक व लौकिक मान्यताओं के अनुसार लोगों की यह धारणा है कि स्वर्ग लोक, बैकुण्ठ (बैकुंठ) धाम इस ब्रह्मांड में कहीं स्थित है, जहां मनुष्य मृत्यु के बाद ही जा सकता है। मृत्यु पश्चात पुण्यकर्मा मनुष्य ही स्वर्ग अथवा बैकुंठ गमन करते हैं। लेकिन हर मनुष्य की इच्छा मृत्यु के पश्चात स्वर्ग लोक गमन की ही होती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जीवन में अच्छे कर्म करने, अत्यधिक पुण्य कर्म करने, दूसरों की मदद करने, गरीबों को भोजन देने, दान -पुण्य, पूजा-पाठ आदि करने और शुद्ध मन व सत्य हृदय से भगवान की पूजा -आराधना करने वाले मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है, और ऐसा मनुष्य ही मृत्यु के पश्चात स्वर्ग में जाकर स्वर्गीय सुखों का आनंद लेता है। इसी प्रकार पूरे जीवन में कभी भी किसी को दान नहीं देने, दान- पुण्य का काम नहीं करने, दूसरों की मदद नहीं करने, प्रभु आराधना, पूजा पाठ का काम नहीं करने वाले, दूसरों को सताने वाले, किसी का मदद नहीं करने वाले मनुष्य को मृत्यु होने पर नरक मिलता है और नर्क में उसे उसके कर्मों के अनुसार दंड दिया जाता है। यही कारण है कि मृत्यु के पश्चात हर कोई स्वर्ग जाना चाहता है। भारत के बहुसंख्यक हिन्दू जन तो कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को बैकुंठ प्राप्ति हेतु श्रीविष्णु की भक्ति- भाव से पूजा -आराधना करते हैं। इसी कारण कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी का दिन बैकुंठ चतुर्दशी के नाम से प्रसिद्ध है।
पौराणिक कथाओं में कृतयुग अर्थात सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग में इस ब्रह्मांड में स्वर्ग लोक और बैकुंठ धाम की स्थिति का उल्लेख किया गया है। उनमें सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग में ऋषि- मुनि, साधु- तपस्वी, महात्माओं के जीवित ही स्वर्ग का भ्रमण कर आने के विवरण अंकित हैं। अर्थात उस समय सबको पता था कि स्वर्ग लोक और बैकुंठ धाम कहां है? कथाओं के अनुसार त्रेता युग में राजा दशरथ देवताओं की ओर से युद्ध करने के लिए स्वर्ग लोक जाते थे। द्वापर युग में अर्जुन दिव्यास्त्र की खोज में स्वर्ग लोक गए। और महाभारत के युद्ध की तैयारी के लिए स्वर्ग लोक जाकर दिव्यास्त्र प्राप्त किए। लेकिन यह अचम्भे की बात है कि इस कलयुग में स्वर्ग लोक और बैकुंठ धाम को किसी ने नहीं देखा है। अर्थात किसी को यह नहीं पता कि इस कलयुग में स्वर्ग लोक और बैकुंठ धाम कहां है? पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इस बात का पता लगाने के लिए हर सम्भव कोशिश कर चुके हैं, लेकिन आज किसी के पास दैवीय शक्ति नहीं होने के कारण कोई भी स्वर्गलोक अथवा बैकुंठधाम का पता नहीं लगा सके हैं। परन्तु पौराणिक ग्रन्थों में इस कलयुग में स्वर्ग लोक की उपस्थिति ध्रुव तारे की ओर बताया गया है। आकाश में सभी तारों के मध्य उत्तर दिशा की ओर अन्य ताराओं की अपेक्षा बड़ी दिखाई देने वाली ध्रुवतारा को पृथ्वी के किसी भी स्थान से रात को आसानी से पहचाना जा सकता है। यह ध्रुव तारा अर्थात ध्रुवलोक सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग में भुवर लोक के नाम से जाना जाता था। पृथ्वी से लगभग 14 लाख योजन दूर स्थित इस भुवरलोक में प्राचीन काल में सप्तऋषि और ऋषि- मुनि निवास करते थे। और भुवरलोक के बाद स्वर्गलोक आता है। इस भुवरलोक से लगभग एक करोड़ योजन की दूरी पर स्थित मेहरलोक है, जो स्वर्ग लोक का ही एक भाग है। स्वर्गलोक के समान ही दिखाई देने वाली इस मेहरलोक में भगवान के भक्ति में लीन रहने वाले बड़े-बड़े तपस्वी ऋषि -मुनि निवास करते हैं। जन लोक नाम से विख्यात स्वर्ग लोक मैहर लोक से लगभग दो करोड़ योजन की दूरी पर है। इसी स्वर्ग लोक में देवी देवता निवास करते हैं। इसी में मनुष्य की मृत्यु के बाद पुण्य आत्मा जाती है। यहां जाने के बाद स्वर्ग के देवी- देवता के दर्शन होते हैं। और यहां मृत्यु के पश्चात ही पहुंचा जा सकता है। इस स्वर्ग को पाने के लिए ऋषि मुनि वर्षों तक तपस्या करते हैं। स्वर्ग लोक जाने के लिए अपने जीवन में अच्छे कर्म करना चाहिए। अच्छे कर्म करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
पौराणिक मान्यतानुसार भगवान विष्णु के निवास स्थल अर्थात लोक को बैकुंठ कहा जाता है। बैकुंठ धाम जगतपालक भगवान विष्णु का संसार है। महादेव के कैलाश लोक पर, ब्रह्मा के ब्रह्मलोक पर बसने की भांति विष्णु विष्णुलोक में बसते हैं। साकेत, गोलोक, विष्णुलोक,वैकुण्ठधाम, वैकुण्ठ सागर, परमधाम, परमस्थान, परमपद, परमव्योम, सनातन आकाश, शाश्वत-पद, ब्रह्मपुर आदि नामों से भी इसे अभिहित किया गया है। मनुष्य को बहुत ही पुण्य कर्मों के प्रताप से ही इस लोक में स्थान मिलता है, और जो यहां पहुंच जाता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाने के कारण वह पुनः गर्भ में नहीं आता है। कुछ लोगों का कहना है कि बैकुण्ठ धाम मन की अवस्था है। यह बैकुण्ठ कोई स्थान न होकर आध्यात्मिक अनुभूति का धरातल है। जिसे बैकुण्ठ धाम जाना हो, उसके लिए ज्ञान ही उम्मीद की एक किरण है। इससे वह ईश्वर के स्वरूप से एकाकार हो जाता है। लेकिन जिसके भीतर परम ज्ञान है, भगवान के प्रति अनन्य भक्ति है, वे ही बैकुण्ठ पहुंच सकते हैं। जहां कुंठा न हो उसे बैकुंठ कहते हैं। कुंठा अर्थात निष्क्रियता, अकर्मण्यता, निराशा, हताशा, आलस्य और दरिद्रता जहां न हो। अर्थात ऐसा स्थल जहां कर्महीनता नहीं है, निष्क्रियता नहीं है, निराशा, हताशा, आलस्य और दरिद्रता नहीं है, बैकुंठलोक है। इस सांसारिक लोक में भी कई ऐसे स्थल हो सकते हैं, और हैं, जहाँ निष्क्रियता नहीं होती और सदैव ही रौनक बनी रहती है।
पौराणिक ग्रन्थों में विष्णु के निवास बैकुंठ लोक की स्थिति तीन स्थानों पर मानी गई है- पृथ्वी पर, समुद्र में और स्वर्ग के ऊपर। वैकुंठ को विष्णुलोक और वैकुंठ सागर भी कहते हैं। श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है, इसीलिए श्रीकृष्ण के निवास स्थान को भी गोलोक अर्थात वैकुंठ कहा जाता है। पृथ्वी पर बद्रीनाथ, जगन्नाथ और द्वारिकापुरी को भी वैकुंठ धाम कहा जाता है। भारतीय परम्परा में चार धामों में सर्वश्रेष्ठ पावन तीर्थस्थल बद्रीनाथ नर और नारायण पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा, अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नीलकंठ पर्वत श्रृंखला की पृष्ठभूमि पर स्थित है। भारत के उत्तर में स्थित बद्रीनाथ का यह मंदिर भगवान विष्णु का दरबार माना जाता है। बद्रीनाथ धाम में आराध्य देव बद्रीनारायण भगवान के पञ्च स्वरूपों की पूजा-अर्चना होती है। विष्णु के इन पञ्च रूपों को पंच बद्री के नाम से जाना जाता है- श्री विशाल बद्री, श्री योगध्यान बद्री, श्री भविष्य बद्री, श्री वृद्ध बद्री और श्री आदि बद्री। मान्यतानुसार सतयुग में बद्रीनाथ धाम की स्थापना नारायण ने की थी। त्रेतायुग में रामेश्वरम की स्थापना स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने की थी। द्वापर युग में द्वारिकाधाम की स्थापना योगीश्वर श्रीकृष्ण ने की और कलयुग में जगन्नाथ धाम को ही वैकुंठ कहा जाता है। पुराणों में धरती के बैकुंठ के नाम से अंकित जगन्नाथ पुरी का मंदिर समस्त दुनिया में प्रसिद्ध है। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार पुरी में भगवान विष्णु ने पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतार लिया था। दूसरे बैकुंठ की स्थिति इस पृथ्वी अर्थात ब्रह्मांड के बाहर और तीनों लोकों से ऊपर बताई गई है। यह इस दृश्यमान प्रकृति से तीन गुना बड़ा है। इसकी देखभाल के लिए भगवान विष्णु के छियानब्बे करोड़ पार्षद नियुक्त हैं। इस जगत से मुक्त होने वाली सभी जीवात्माएं इसी परमधाम में शंख, चक्र, गदा और पद्म के साथ प्रविष्ट होती हैं। और फिर वहां से वह जीवात्मा फिर कभी भी वापस नहीं होती। यहां श्रीविष्णु अपनी चार पटरानियों श्रीदेवी, भूदेवी, नीला और महालक्ष्मी के साथ निवास करते हैं। मान्यता है कि मृत्यु पश्चात विष्णु भक्त पुण्यात्माएं इसी लोक में पहुंच जाती है। पुराणों के अनुसार इस वैकुंठ की स्थिति हमारे ब्रह्मांड के परे है। इस वैकुंठ की यात्रा करने वाली जीवात्माओं को विदा देने के लिए मार्ग में समय के देवता, प्रहर के देवता, दिवस के देवता, रात्रि के देवता, दिन के देवता, ग्रहों के देवता, नक्षत्रों के देवता, माह के देवता, मौसम के देवता, पक्ष के देवता, उत्तरायण के देवता, दक्षिणायन के देवता सभी तल -अतल, सुतर, पाताल आदि के देवता, सभी तैंतीस कोटि के देवता पहले उसे पुन: किसी योनि में धकेलने का प्रयास करते हैं, अथवा वैकुंठ जाने देने से रोकते हैं, लेकिन जो जीवात्मा श्रीविष्णु की शरणागत होता है, उसको ये सभी एकपाद विभूति के अंतिम सीमा तक लेकर जाते हैं और त्रिपाद विभूति के बाहर प्रवाहित होने वाली विरजा नदी के तट पर छोड़ देते हैं। इसी एकपाद विभूति में हमारा संपूर्ण ब्रह्मांड और सारे लोक अवस्थित हैं। इस एकपाद विभूति की सीमा के बाद बैकुंठ धाम शुरू होता है। इसी वैकुंठ धाम और एकपाद विभूति के मध्य विरजा नामक एक नदी बहती है। इस नदी से ही त्रिपाद विभूति शुरू होती है, जो वैकुंठलोक के नाम से विख्यात है। मुक्त होने वाली जीवात्मा को जब सभी देवता विरजा नदी तक छोड़कर जाते हैं, तब वह मुक्त जीवात्मा नदी में डुबकी लगाकर उस पार चली जाती है। उस पार से पार्षदगण उसको सीधे श्रीहरि विष्णु के पास ले जाते हैं। वहां वह उनके दर्शन करके परम आनंद को प्राप्त करता है। इस प्रकार त्रिपाद विभूति में ही वह जीवात्मा सदा के लिए स्थापित हो जाती है। पुराणों में इस वैकुंठधाम का विस्तृत विवरण अंकित है। पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारिका के अतिरिक्त एक और नगर बसाया था, जिसे बैकुंठ कहा जाता था। कुछ पुरातत्वविदों और इतिहासकारों के अनुसार अरावली की पहाड़ी श्रृंखला पर कहीं वैकुंठ धाम बसाया गया था, जहां मनुष्य नहीं, बल्कि सिर्फ साधक ही रहते थे। अरावली या अर्वली उत्तर भारतीय पर्वतमाला है। भारत की भौगोलिक संरचना में अरावली भारत का प्राचीनतम पर्वत है। यहीं पर श्रीकृष्ण ने वैकुंठ नगरी बसाई थी। राजस्थान में यह पहाड़ नैऋत्य दिशा से चलता हुआ ईशान दिशा में करीब दिल्ली तक पहुंचा है। राजस्थान राज्य के पूर्वोत्तर क्षेत्र से गुजरती 560 किलोमीटर लंबी इस पर्वतमाला की कुछ चट्टानी पहाड़ियां दिल्ली के दक्षिण हिस्से तक चली गई हैं। गुजरात के किनारे अर्बुद या माउंट आबू का पहाड़ उसका एक सिरा है और दिल्ली के पास की छोटी-छोटी पहाड़ियां धीरज दूसरा सिरा।
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