काम का नाश करता परमात्मा का यथार्थ ज्ञान

काम का नाश करता परमात्मा का यथार्थ ज्ञान

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यहाँ ‘कामरूपेण’ पद किस काम का वाचक है?

उत्तर-जो काम दुर्गुणों की श्रेणी में गिना जाता है, जिसका त्याग करने के लिये गीता में जगह-जगह कहा गया है। सोलहवें अध्याय में जिसको नरक का द्वार बतलाया गया है, उस सांसारिक विषय-भोगों की कामना रूप का काम का वाचक यहाँ ‘कामरूपेण’ पद है। भगवान् से मिलने की, उनका भजन-ध्यान करने की अथवा सात्त्विक कर्मों के अनुष्ठान करने की जो शुभ इच्छा है, उसका नाम काम नहीं है; वह तो मनुष्य के कल्याण में हेतु है और इस विषय-भोगांे की कामना रूप काम का नाश करने वाली है, वह साधक की शत्रु कैसे हो सकती है? इसीलिये गीता में ‘काम’ शब्द का अर्थ सांसारिक इष्टानिष्ठ भोगों के संयोग-वियोग की कामना या भोग्य पदार्थ ही समझना चाहिये। इसी प्रकार यह भी समझ लेना चाहिये कि चैंतीसवें श्लोक में या अन्यत्र कहीं जो ‘राग,’ या संग’ शब्द आये हैं, वे भी भगवद्-विषयक अनुराग के वाचक नहीं हैं, कामोत्पादक भोगासक्ति के ही वाचक हैं।

प्रश्न-‘ज्ञानम्’ पद किस ज्ञान का वाचक है और इसको काम के द्वारा ढका हुआ बतलाने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-यहाँ ‘ज्ञानम्’ पद परमात्मा के यथार्थ ज्ञान का वाचक है और उसको काम के द्वारा ढका हुआ बतलाकर यह भाव दिखलाया है कि जैसे जेर से आवृत रहने पर भी बालक उस जेर को चीरकर उसके बाहर निकलने में समर्थ होता है और अग्नि जैसे प्रज्वलित होकर अपना आवरण करने वाले धूएँ का नाश कर देता है, उसी प्रकार जिस समय किसी संत महापुरुष के या शास्त्रों के उपदेश से परमात्मा के तत्त्व का ज्ञान जाग्रत हो जाता है, उस समय वह काम से आवृत्त होने पर भी काम का नाश करके स्वयं प्रकाशित हो उठता है। अतः काम उसको आवृत करने वाला होने पर भी वस्तुतः उसकी अपेक्षा सर्वथा बलहीन ही है।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।

एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।। 40।।

प्रश्न-‘इन्द्रिय, मन और बुद्धि-ये सब इस ‘काम’ के वास स्थान कहे जाते हैं’ इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखलाया है कि मन, बुद्धि और इन्द्रिय मनुष्य के वश में न रहने के कारण उन पर यह ‘काम’ अपना अधिकार जमाये रखता है। अतः कल्याण चाहने वाले मनुष्य को अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों में से इस काम रूप वैरी को शीघ्र ही निकाल देना या वहीं रोककर उसे नष्ट कर देना चाहिये; नहीं तो यह घर में घुसे हुए शत्रु की भाँति मनुष्य जीवन रूप अमूल्य धन को नष्ट कर देगा।

प्रश्न-यह ‘काम’ मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि यह ‘काम’ मनुष्य के मन, बुद्धि और इन्द्रियों में प्रविष्ट होकर उसकी विवेक शक्ति को नष्ट कर देता है और भोगों में सुख दिखलाकर उसे पापों में प्रवृत्त कर देता है, जिससे मनुष्य का अधः पतन हो जाता है। इसलिये शीघ्र ही सचेत हो जाना चाहिये।

यह बात एक कल्पित दृष्टान्त के द्वारा समझायी जाती है।

चेतन सिंह नाम के एक राजा थे। उनके प्रधान मन्त्री का नाम था ज्ञान सागर। प्रधान मन्त्री के अधीनस्थ एक सहकारी मन्त्री था, उसका नाम था चंचल सिंह। राजा अपने मन्त्री के अधीनस्थ एक सहकारी मन्त्री सहित अपनी राजधानी मध्यपुरी में रहते थे। राज्य दस जिलों में बँटा हुआ था और प्रत्येक जिले में एक जिलाधीश अधिकारी नियुक्त था। राजा बहुत ही विचारशील, कर्मप्रवण और सुशील थे। उनके राज्य में सभी सुखी थे। राज्य दिनोंदिन उन्नत हो रहा था। एक समय उनके राज्य में जगमोहन नामक एक ठगों का सरदार आया। वह बड़ा ही कुचक्री और जालसाज था, अंदर कपटरूप जहर सेे भरा होने पर भी उसकी बोली बहुत मीठी थी। वह जिससे बात करता, उसी को मोह लेता। वह आया एक व्यापारी के वेष में और उसने जिलाधीशों से मिलकर उनके राज्य भर में अपना व्यापार चलाने की अनुमति माँगी। जिलाधीशों को काफी लालच दिया। वे लालच में तो आ गये, परन्तु अपने अफसरों की अनुमति बिना कुछ कर नहीं सकते थे। जालसाज व्यापारी जगमोहन की सलाह से वे सब मिलकर उसे अपने अफसर सहकारी मन्त्री चंचल सिंह के पास ले गये; ठग व्यापारी ने उसको खूब प्रलोभन दिया, फलतः चंचल सिंह उसे अपने उच्च अधिकारी ज्ञान सागर के पास ले गया। ज्ञान सागर था तो बुद्धिमान्; परन्तु वह कुछ दुर्बल हृदय का था, ठीक मीमांसा करके किसी निश्चय पर नहीं पहुँचता था। इसी से वह अपने सहकारी चंचल सिंह और दसों जिलाधीशों की बातों में आ जाया करता था। वे इससे अनुचित लाभ भी उठाते थे। आज चंचल सिंह और जिलाधीशों की बातों पर विश्वास करके वह भी ठग व्यापारी के जाल में फँस गया। उसने लाइसेंस देना स्वीकार कर लिया, पर कहा कि महाराजा चेतन सिंह जी की मंजूरी बिना सारे राज्य के लिये लाइसेंस नहीं दिया जा सकता। आखिर ठग व्यापारी की सलाह से वह उसे राजा के पास ले गया। ठग बड़ा चतुर था। उसने राजा को बड़े-बड़े प्रलोभन दिये। राजा भी लोभ में आ गये और उन्होंने जगमोहन को अपने राज्य में सर्वत्र अबाध व्यापार चलाने और कोठियाँ खोलने की अनुमति दे दी। जगमोहन ने जिला अफसरों तथा दोनों मन्त्रियों को कुछ दे-लेकर सन्तुष्ट कर लिया और सारे राज्य में अपना जाल फैला दिया। जब सर्वत्र उसका प्रभाव फैल गया, तब वो वह बिना बाधा प्रजा को लूटने लगा। जिलाधीशों सहित दोनों मंत्री लालच में पड़े हुए थे ही, राजा को भी लूट का हिस्सा देकर उसने अपने वश में कर लिया और छल-कौशल और मीठी-मीठी चिकनी-चुपड़ी बातों में राजा को तथा विषयलोलुप सब अफसरों को कुमार्गगामी बनाकर उसने सबको शक्तिहीन, अकर्मण्य और दुव्र्यसनप्रिय बना दिया और चुपके-चुपके तेजी के साथ अपना बल बढ़ाकर उसने सारे राज्य पर अपना अधिकार जमा लिया। इस प्रकार राजा का सर्वस्व लूटकर अन्त मंे उन्हें पकड़कर नजरकैद कर दिया।

यह दृष्टान्त है, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये। राजा चेतन सिंह ‘जीवात्मा’ है, प्रधान मन्त्री ज्ञान सागर ‘बुद्धि’ है, सहकारी मन्त्री चंचल सिंह ‘मन’ है, मध्यपुरी राजधानी ‘हृदय’ है। दसो जिलाधीश ‘दस इन्द्रियाँ’ हैं, दस जिले इन्द्रियों के ‘दस स्थान’ हैं, ठगों का सरदार जगमोहन ‘काम’ है। विषय-भोगों के सुख का प्रलोभन ही सबको लालच देना है। विषय-भोगों में फँसाकर जीवात्मा को सच्चे सुख के मार्ग से भ्रष्ट कर देना ही उसे लूटना है और उसके ज्ञान को आवृत करके सर्वथा मोहित कर देना और मनुष्य जीवन के परम लाभ से वंचित रहने को बाध्य कर डालना ही नजर-कैद करना है। अभिप्राय यह है कि यह कल्याण विरोधी दुर्जय शत्रु काम इन्द्रिय, मन और बुद्धि को विषय भोग रूप मिथ्या सुख का प्रलोभन देकर उन सब पर अपना अधिकार जमाकर मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा विषय सुख रूप लोभ से जीवात्मा के ज्ञान को ढककर उसे मोहमय संसार रूप कैद खाने में डाल देता है और परमात्मा की प्राप्ति रूप वास्तविक धन से वंचित करके उसके अमूल्य मनुष्य जीवन का नाश कर डालता है।
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