कुल, गोत्र एवं प्रवर

कुल, गोत्र एवं प्रवर

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
श्रीमद्भगवद् गीता में कुलों के धर्मों को शाश्वत कहा है। इस प्रकार परमज्ञान और आत्मज्ञान की दृष्टि से जहां व्यक्ति इकाई है, वहीं शेष समस्त सामाजिक व्यवहार के लिये कुल ही इकाई है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि व्यक्ति की अपनी अस्मिता का कुल की अपेक्षा में कम सम्मान है। क्योंकि सभी 16 संस्कार व्यक्ति के ही होते हैं और वे संस्कार कुल परंपरा और क्षेत्र और जनपद की परंपराओं के अनुसार होते हैं इस प्रकार कुल आधारभत सामाजिक इकाई है जबकि व्यक्ति ज्ञानात्मक एवं आध्यात्मिक इकाई है।
कुल परंपरा वस्तुतः जन्म से ही प्राप्त होती है। कोई व्यक्ति किसी परिवार में ही जन्म लेता है और इस प्रकार वह कुल का सदस्य बन कर ही जन्म लेता है।
गोत्र एवं प्रवर:-
गोत्र का अर्थ है किसी एक पूर्वज से चली आ रही पंक्ति परंपरा। उदाहरण के लिये जब कोई स्वयं को वत्स गोत्र कहता है, तो इसका अर्थ है कि वह वत्स ऋषि का वंशज है। इसी प्रकार जब वह अपने प्रवर का उल्लेख करेगा तो वह इस परंपरा में पूर्व और पश्चात में हुये अन्य ऋषियों का उल्लेख करेगा। जैसे कि वत्स गोत्रीय व्यक्ति कहेगा कि मेरा प्रवर है - ‘भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य’ - तो इसका अर्थ है कि वह महर्षि भृगु , ऋषि च्यवन, अप्नवान, उर्व और जमदग्नि ऋषियों का वंशज है। शास्त्रों के अनुसार गोत्र भी अनादि हैं। परंतु यदि कोई व्यक्ति विद्या, राज्य, धन, शक्ति या दान आदि के फलस्वरूप यशस्वी होता है और उसके वंशज अपने को उसी नाम से घोषित करने लगते हैं तो इसे उनका लौकिक गोत्र कहा जाता है। उदाहरण के लिये भगवान श्रीराम को राघव भी कहा जाता है जो यशस्वी महाराज रघु के वंशज होने का स्मरण कराता है।
प्राचीन काल से ही गोत्रों के संस्थापक ऋषि आठ रहे हैं। इनसे ही फिर शाखाओं का विस्तार हुआ है। पतंजलि का महाभाष्य में कथन है कि 80000 ऋषियों ने विवाह नहीं किया, केवल आठ ऋषियों ने ही विवाह किया और उन्हीं से वंश परंपरा चली। ये आठ ऋषि हैं - विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप एवं अगस्त। इसी प्रकार प्रवर 49 हैं। धर्मसिन्धु के तृतीय परिच्छेद के पूर्वार्द्ध भाग में कहा गया है कि 7 भृगुगण, 17 अंागिरसगण, 4 अत्रिगण, 10 विश्वामित्रगण, 3 कश्यपगण, 4 वशिष्ठगण और 4 अगस्तिगण ये सब मिलकर 49 गण होते हैं तथापि सब ग्रंथों के मतों का संग्रह करके देखें तो इससे अधिक गण मिलते हैं।5
‘सप्तभृगवः सप्तदशांगिरसः चत्वारोत्रयः दशमिश्वामित्राः त्रयः कश्यपः चत्वारोवसिष्ठाः चत्वारोऽगस्तय इत्येकोनपंचाशद् गणाःतथापिसर्वग्रंथमतसंग्रहेणाधिकास्तत्रतत्रवक्षयंते।’ (धर्मसिन्धु, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली, संस्करण 2012 ईस्वी, पृष्ठ 346)6
आगे धर्मसिन्धु कहता है - वत्स और विद ये दो जामदग्न्य भृगु हैं, आर्ष्टिषेण, यस्क, मित्रयु, वैन्य और शुनक - ये पांच केवल भृगु हैं। इन्हें मिलाकर सात भृगुगण हैं। इनमें से 200 से अधिक वत्सगोत्र के भेद हैं और इनके भार्गव, च्यावन, आप्नवान, और्व और जामदग्न्य ऐसे पांच प्रवर होते हैं अथवा भार्गव, और्व और जामदग्न्य - ऐसे तीन प्रवर हैं। इसी प्रकार विद् गोत्र के बीस से अधिक भेद हैं। आर्ष्टिषेण के भी बीस से अधिक भेद हैं। इसी प्रकार आंगिरसगण के तीन प्रकार हैं- गौतम, भरद्वाज और आंगिरस। इनके प्रवर तीन हैं और इसी प्रकार शारद्वत के सत्रह से अधिक भेद हैं इत्यादि।7 इस तरह धर्मसिन्धु और निर्णयसिन्धु दोनों में गोत्रों और प्रवरों का विस्तार दिया गया है। (देखंे कमलाकर भट्ट कृत निर्णयसिन्धु, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणासी, संस्करण 2014 ईस्वी, पृष्ठ 490 से 502)8
गोत्र का अर्थ है आपस में सम्बन्धित मनुष्यों का एक समूह या दल। इसके साथ ही गायों के समूह विशेष को भी अलग-अलग गोत्र कहा जाता था और दुर्ग को भी गोत्र कहा गया है। एक ही पूर्वज के वंशजों को एक गोत्र का कहते हैं। प्रवर का अर्थ है वरण करने या आवाहन करने योग्य अर्थात प्रार्थनीय ऋषिगण। इसीलिये प्रत्येक यजमान या साधक को अपने गोत्र के मूलपुरूष और अपने प्रवर के सभी ऋषियों के पुण्य स्मरण की साधना अवश्य करनी चाहिये और किसी भी पुण्यकर्म के समय उनसे प्रार्थना करनी चाहिये।
महाभारत के अनुसार मूल गोत्र चार ही हैं - अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ एवं भृगु। वस्तुतः भृगुगण और अंगिरागण का बहुत अधिक विस्तार है। बौधायन ने सहस्रों गोत्र बतायें हैं और उनमें से 500 गोत्र ऋषियों तथा प्रवर ऋषियों का उल्लेख किया है।
महत्वपूर्ण यह है कि ऐतरेयब्राह्मण के अनुसार क्षत्रियों के प्रवर उनके पुरोहितों के प्रवर ही होते हैं। मेधा तिथि ने भी यही लिखा है कि गोत्रों और प्रवरों का विचार मुख्यतः ब्राह्मणों से संबंधित है। परंतु प्राचीन काल के विवरणों में राजाओं के गोत्रों का स्पष्ट उल्लेख है। महाराज युधिष्ठिर जब ब्राह्मण के रूप में राजा विराट के यहां गये तो उनसे उनका गोत्र पूछा गया और उन्होंने बताया कि वे वैयाघ्रपद गोत्र के हैं -
युधिष्ठिरस्यासमहं पुरा सखा
वैयाघ्रपद्यः पुनरस्मि विप्रः।
अक्षान् प्रयोक्तुं कुशलोऽस्मि देविनां
कंकेति नाम्नास्मि विराट विश्रुतः।। (विराट पर्व, अध्याय 7, श्लोक 12)9
यह गोत्र वस्तुतः पाण्डवों का गोत्र था और सभी सनातनधर्मानुयायी आज तक पितरों के तर्पण में भीष्म को तर्पण देते हुये उनके गोत्र वैयाघ्रपद का स्मरण करते हैं:-
वैयाघ्रपद गोत्राय सांकृत प्रवराय च
गंगापुत्राय भीष्माय ददाम्येतद् तिलोदकम्।
अपुत्राय ददामि एतद् सतिले भीष्मवर्मणे।।
पाण्डवों का प्रवर सांकृति था। कांची के पल्लवों का गोत्र था भारद्वाज। चालुक्यों का गोत्र मानव था। जयचन्द्र देव का गोत्र वत्स था।
यदि अपना गोत्र और प्रवर स्मरण ना हो तो आचार्य के गोत्र और प्रवर उपयोग में लाये जा सकते हैं। ऐसा आपस्तम्ब धर्मसूत्र का कहना है। कालान्तर में गोत्र से कुल का परिचय भी दिया जाने लगा, यह हमें अभिलेखों से विदित होता है। एपिग्रैफिया इण्डिका में ऐसे कई अभिलेखों का उल्लेख है। इस प्रकार गोत्र और प्रवर मुख्यतः कुलों की पहचान में काम आते हैं। वर्ण इससे नितान्त भिन्न हैं।
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकजहमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ