ऊँचाईयाँ

ऊँचाईयाँ

चल रही हैं ऊँची प्रतियोगिताएँ ,
निज सर्वोच्च साबित करने की ।
चाहे कुछ भी करना पड़े मुझको ,
चाहे बारी आ जाए मरने की ।।
बातों से ही केवल ऊँचा बनते ।
कर्म नहीं कोई भी ठिकाने की ।
कर्म में आगे की आती है बारी ,
पुनः सोचते वापस ही आने की ।।
बहाने बनते तब वहाँ कोई भी ,
वापसी हेतु अपनाते कोई विधा ।
बातों से तो वे ऐसे ही हैं लगते ,
बातों में ही हैं वे तो स्वयंसिद्धा ।।
सीख लें हम राष्ट्र प्रहरियों से ही ,
जो नहीं किसी से कभी डरते हैं ।
करते अरियों से डट मुकाबला ,
या तो वे मारते या स्वयं मरते हैं ।।
सीख लें हम उच्च हिमालय से ,
जो स्वयं अंबर को छू लेता है ।
आँधी तूफाँ में भी अटल रहता ,
कर्म में वापसी क्यों तू होता है ।।
हिमालय कभी परिचय नहीं देता ,
मैं दुनियाँ में सबसे ही ऊँचा हूँ ।
हिमालय न कहता मैं अंबर छूता ,
बस तुच्छ बनने की न सोचा हूँ ।।
छू सकें तो छू लें शीर्ष शिखर को ,
निज कर्मों से ही उच्च होकर ।
हर ऊँचाईयाँ तब कदम चूमेगी ,
तब आ नहीं सकता कोई ठोकर।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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