अर्जुन को मुमुक्षु के बारे में ज्ञान

अर्जुन को मुमुक्षु के बारे में ज्ञान

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूवैंरपि मुमुक्षुभिः।

कुरु कमैंव तस्मात्त्वं पूवैंः पूर्वतरं कृतम्।। 15।।

प्रश्न-‘मुमुक्षु’ किस को कहते हैं तथा पूर्वकाल में मुमुक्षुओं का उदाहरण देकर इस श्लोक में क्या बात समझायी गयी है?

उत्तर-जो मनुष्य जन्म-मरण रूप संसार बन्धन से मुक्त होकर परमानन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, जो सांसारिक भोगों को दुःखमय और क्षणभंगुर समझकर उनसे विरक्त हो गया है और जिसे इस लोक या परलोक के भोगों की इच्छा नहीं है-उसे ‘मुमुक्षु’ कहते हैं। अर्जुन भी मुमुक्षु थे, वे कर्म बन्धन के भय से स्वधर्म रूप कर्तव्य कर्म का त्याग करना चाहते थे; अतएव भगवान् ने इस श्लोक में पूर्व काल के मुमुक्षुओं का उदाहरण देकर यह बात समझायी कि कर्मों को छोड़ देने मात्र से मनुष्य उनके बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता; इसी कारण पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी मेरे कर्मों की दिव्यता का तत्त्व समझकर मेरी ही भाँति कर्मों में ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार का त्याग करके निष्काम भाव से अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार उनका आचरण ही किया है। अतएव तुम भी यदि कर्म बन्धन से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें भी पूर्वज मुमुक्षुओं की भाँति निष्काम भाव से स्वधर्म रूप कर्तव्य-कर्म का पालन करना ही उचित है, उसका त्याग करना उचित नहीं।

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।

तत्त्वे कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।16।।

प्रश्न-यहाँ ‘कवयः‘ पद किन पुरुषों का वाचक है और उनका कर्म-अकर्म के निर्णय में मोहित हो जाना क्या है? तथा इस वाक्य में ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-यहाँ ‘कवयः‘ पद शास्त्रों के जानने वाले बुद्धिमान् पुरुषों का वाचक है। शास्त्रों में भिन्न-भिन्न प्ऱिक्रयाओं से कर्म का तत्त्व समझाया गया है, उसे देख-सुनकर भी बुद्धि का इस प्रकार ठीक-ठीक निर्णय न कर पाना कि अमुक भाव से की हुई अमुक क्रिया अथवा क्रिया का त्याग तो कर्म है तथा अमुक भाव से की हुई अमुक क्रिया या उसका त्याग अकर्म है-यही उनका कर्म-अकर्म के निर्णय में मोहित हो जाना है। इस वाक्य में ‘अपि’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जब बड़े-बड़े बुद्धिमान भी इस विषय में मोहित हो जाते हैं-ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते, तब साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है? अतः कर्मों का तत्त्व बड़ा ही दुर्विज्ञेय है।

प्रश्न-यहाँ जिस कर्म तत्त्व का वर्णन करने की भगवान् ने प्रतिज्ञा की है, उसका वर्णन इस अध्याय में कहाँ किया गया है? उसको तत्त्व से जानना क्या है? और उसे जानकर कर्म बन्धन से मुक्ति कैसे हो जाती है?

उत्तर-उपर्युक्त कर्मतत्त्व का वर्णन इस अध्याय में अठारहवें से बत्तीसवें श्लोक तक किया गया है; उसे वर्णन से इस बात को ठीक-ठीक समझ लेना कि किस भाव से किया हुआ कौन-सा कर्म या कर्म का त्याग मनुष्य के पुनर्जन्म रूप बन्धन हेतु बनता है और किस भाव से किया हुआ कौन-सा कर्म या कर्म का त्याग मनुष्य के पुनर्जन्म रूप बन्धन का हेतु न बनकर मुक्ति का हेतु बनता है-यही उसे तत्त्व से जानना है। इस तत्त्व को समझ लेने वाले मनुष्य द्वारा कोई भी ऐसा कर्म या कर्म का त्याग नहीं किया जा सकता जोकि बन्धन का हेतु बन सके; उसके सभी कर्तव्य-कर्म ममता, आसक्ति फलेच्छा और अहंकार के बिना केवल भगवदर्थ या लोक संग्रह के लिए ही होते हैं। इस कारण उपर्युक्त कर्म तत्त्व को जानकर मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।

कर्मणो ह्यापि बोद्धव्य बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्चव बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।। 17।।

प्रश्न-कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये-इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि साधारणतः मनुष्य यही जानते हैं कि शास्त्र विहित कर्तव्य कर्मों का नाम कर्म है; किन्तु इतना जान लेने मात्र से कर्म का स्वरूप नहीं जाना जा सकता, क्योंकि उसके आचरण में भाव का भेद होने से उसके स्वरूप में भेद हो जाता है। अतः किस भाव से, किस प्रकार की हुई कौन-सी क्रिया का नाम कर्म है? एवं किस स्थिति में किस मनुष्य को कौन-सा शास्त्रविहित कर्म किस प्रकार करना चाहिये-इस बात को शास्त्र के ज्ञाता तत्त्व महापुरुष ही ठीक-ठीक जानते हैं। अतएव अपने अधिकार के अनुसार वर्णामोचित कर्तव्य-कर्मों को समझना चाहिये और उनकी प्रेरणा और आज्ञा के अनुसार उनका आचरण करना चाहिये।

प्रश्न-अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये, इस कथन का क्या अभिप्राय है? 
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि साधारणतः मनुष्य यही समझते हैं कि मन, वाणी और शरीर द्वारा की जाने वाली क्रियाओं का स्वरूप से त्याग कर देना ही अकर्म यानी कर्मों से रहित होना है; किन्तु इतना समझ लेने मात्र से अकर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जाना जा सकता; क्योंकि भाव के भेद से इस प्रकार का अकर्म भी कर्म या विकर्म के रूप में बदल जाता है और जिसको लोग कर्म समझते हैं, वह भी अकर्म या विकर्म हो जाता है। अतः किस भाव से किस प्रकार की हुई कौन-सी क्रिया या उसके त्याग का नाम अकर्म है एवं किस स्थिति में किस मनुष्य को किस प्रकार उसका आचरण करना चाहिये, इस बात को तत्त्वज्ञानी महापुरुष ही ठीक-ठीक जान सकते हैं। अतएव कर्म बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों को उन महापुरुषों से इस अकर्म का स्वरूप भी भलीभाँति समझकर उनके कथनानुसार साधन करना चाहिये।
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