परमात्मा की प्राप्ति के यज्ञ का शेष अमृत

परमात्मा की प्राप्ति के यज्ञ का शेष अमृत

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्त्म।। 31।।

प्रश्न-यहाँ यज्ञ से बचा हुआ अमृत क्या है और उसका अनुभव करना क्या है?

उत्तर-लोक प्रसिद्धि में देवताओं के निमित्त अग्नि में घृतादि पदार्थों का हवन करना यज्ञ है और उससे बचा हुआ अविष्यान्न ही यज्ञ शिष्ट अमृत है। इसी तरह स्मृतिकारों ने जिन पंच महायज्ञादि का वर्णन किया है उनमें देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और अन्य प्राणि मात्र के लिये यथा शक्ति विधिपूर्वक अन्न का विभाग कर देने के बाद बचे हुए अन्न को यज्ञशिष्ट अमृत कहा है; किन्तु यहाँ भगवान् ने उपर्युक्त यज्ञ के रूपक में परमात्मा की प्राप्ति के ज्ञान, संयम, तप, योग, स्वाध्याय, प्राणायाम आदि ऐसे साधनों का भी वर्णन किया है जिनमें अन्न का सम्बन्ध नहीं है। इसलिये यहाँ उपर्युक्त साधनों का अनुष्ठान करने से साधकों का अन्तःकरण शुद्ध होकर उसमें जो प्रसाद रूप प्रसन्नता की उपलब्धि होती है। वही यज्ञ से बचा हुआ अमृत है, क्योंकि वह अमृत स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति में हेतु है तथा उस विशुद्ध भाव से उत्पन्न सुख में नित्यतृप्त रहना ही यहाँ उस अमृत का अनुभव करना है।

प्रश्न-उपर्युक्त परमात्मा प्राप्ति के साधन रूप यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले पुरुषों को सनातन परब्रह्म की प्राप्ति इसी जन्म में हो जाती है या जन्मान्तर में होती है?

उत्तर-यह उनके साधन की स्थिति पर निर्भर है जिसके साधन से भाव की कमी नहीं होती, उसको तो इसी जन्म में और बहुत ही शीघ्र सनातन परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है; जिसके साधन में किसी प्रकार की त्रुटि रह जाती है, उसको उस कमी की पूर्ति होने पर होती है, परन्तु उपर्युक्त साधन व्यर्थ कभी नहीं होते, साधकों को परमात्मा की प्राप्ति रूप फल अवश्य मिलता है। यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह सामान्य बात कही है कि वे लोग सनातन परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।

प्रश्न-सनातन परब्रह्म की प्राप्ति से सगुण ब्रह्म की प्राप्ति मानी जाय या निर्गुण की?

उत्तर-सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्मा दो नहीं हैं, सच्चिदानन्दधन परमेश्वर ही सगुण ब्रह्म हैं और वे ही निर्गुण ब्रह्म हैं। अपनी भावना और मान्यता के अनुसार साधकों की दृष्टि में ही सगुण और निर्गुण का भेद है, वास्तव में नहीं। सनातन परब्रह्म की प्राप्ति होने के बाद कोई भेद नहीं रहता।

प्रश्न-यहाँ ‘अयज्ञस्य’ पद किस मनुष्य का वाचक है और उसके लिये यह लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक तो कैसे सुखदायक हो सकता है-इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-जो मनुष्य उपर्युक्त यज्ञों में से या इनके सिवा जो और भी अनेक प्रकार के साधन रूप यज्ञ शास्त्रों में वर्णित हैं, उनमें से कोई-सा-भी यज्ञ किसी प्रकार भी नहीं करता, उस मनुष्य जीवन के कर्तव्य का पालन न करने वाले पुरुष का वाचक यहाँ ‘अयज्ञस्य’ पद है। उसको यह लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक तो कैसे सुखदायक हो सकता है-इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त साधनों का अधिकार पाकर भी उनमें न लगने के कारण उसको मुक्ति तो मिलती ही नहीं, स्वर्ग भी नहीं मिलता और मुक्ति के द्वार रूप इस मनुष्य शरीर में भी कभी शान्ति नहीं मिलती; क्योंकि परमार्थ साधनहीन मनुष्य नित्य-निरन्तर नाना प्रकार की चिन्ताओं की ज्वाला से जला करता है; फिर उसे दूसरी योनियों में तो, जो केवल भोगयोनि मात्र हैं और जिनमें सच्चे सुख की प्राप्ति का कोई साधन ही नहीं है, शान्ति मिल ही कैसे सकती है? मनुष्य शरीर में किए हुए शुभाशुभ कर्मों का ही फल दूसरी योनियों में भोगा जाता है। अतएव जो इस मनुष्य शरीर में अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता? उसे किसी भी योनि में सुख नहीं मिल सकता।

प्रश्न-इस लोक में शास्त्र विहित उत्तम कर्म न करने वालों को और शास्त्र विपरीत कर्म करने वालों को भी स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि इष्ट प्रतिष्ठा आदि इष्ट वस्तु की प्राप्ति रूप सुख का मिलना तो देखा जाता है; फिर यह कहने का क्या अभिप्राय है कि यज्ञ न करने वाले को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है?

उत्तर-उपर्युक्त इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति रूप सुख का मिलना भी पूर्वकृत शास्त्र विहित शुभ कर्मों का ही फल है, पाप कर्मों का नहीं। इस सुख को वर्तमान जन्म में किये हुए पाप कर्मों का या शुभ कर्मों के त्याग का फल कदापि नहीं समझना चाहिये। इसके सिवा, उपर्युक्त सुख वास्तव में सुख भी नहीं है। अतएव भगवान् के कहने का यहाँ यही अभिप्राय है कि साधन रहित मनुष्य को इस मनुष्य शरीर में भी (जो कि परमानन्द स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति का द्वार है) उसकी मूर्खता के कारण सात्त्विक सुख या सच्चा सुख नहीं मिलता, वरन् नाना प्रकार की भोगवासना के कारण निरन्तर शोक और चिन्ताओं के सागर में ही डूबे रहना पड़ता है।

प्रश्न-पुत्र का माता-पितादि की सेवा करना, स्त्री का पति की सेवा करना, शिष्य का गुरू की सेवा करना और इसी प्रकार शास्त्र विहित अन्यान्य शुभ कर्मों का करना यज्ञार्थ कर्म करने के अन्तर्गत है या नहीं और उनको करने वाला सनातन ब्रह्म को प्राप्त हो सकता है या नहीं? 
उत्तर-उपर्युक्त सभी कर्म स्वधर्म पालन के अन्तर्गत हैं, अतएव जब स्वधर्म पालन रूप यज्ञ की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये परमेश्वर की आज्ञा मानकर निःस्वार्थ भाव से किये जाने वाले युद्ध और कृषि-वाणिज्यादि रूप कर्म भी यज्ञ के अन्तर्गत हैं और उनको करने वाला मनुष्य भी सनातन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, तब माता-पितादि गुरुजनों को, गुरू को और पति को परमेश्वर की मूर्ति समझकर या उनमें परमात्मा को व्याप्त समझकर अथवा उनकी सेवा करना अपना कर्तव्य समझकर उन्हीं को सुख पहुँचाने के लिये जो निःस्वार्थ भाव से उनकी सेवा करना है, वह यज्ञ के लिये कर्म करना है और उससे मनुष्य को सनातन ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है-इसमें तो कहना ही क्या है?
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