अर्जुन को बताया शांति प्राप्त करने का उपाय

अर्जुन को बताया शांति प्राप्त करने का उपाय

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-अट्ठावनवें से लेकर इस श्लोक तक अर्जुन के तीसरे प्रश्न का ही उत्तर माना जाय तो क्या आपत्ति है, क्योंकि इस श्लोक में समुद्र की भाँति अचल रहने का उदाहरण दिया गया है?

उत्तर-तीसरे प्रश्न का उत्तर यहाँ नहीं माना जा सकता, तीसरे प्रश्न का उत्तर अट्ठावनवें श्लोक से आरम्भ करके इकसठवें श्लोक में समाप्त कर दिया गया है; इसीलिये उसमें ‘आसीत’ पद आया है। इसके बाद प्रसंगवश बासठ और तिरसठवें श्लोकों में विषय-चिन्तन से आसक्ति आदि के द्वारा अधःपतन दिखलाकर चैंसठवें श्लोक से चैथे प्रश्न का उत्तर आरम्भ करते हैं। ‘चरन्’ पद से यह भेद स्पष्ट हो जाता है। इसी सिलसिले में नौका के दृष्टान्त से विषयासक्त अयुक्त पुरुष की विचरती हुई इन्द्रियों से किसी एक इन्द्रिय के द्वारा बुद्धि के हरण किये जाने की बात आयी है। इसमें भी ‘चरताम्’ पद आया है। इसके अतिरिक्त इस श्लोक में ‘सर्वे कामाः प्रविशन्ति’ पदो ंस यह कहा गया है कि सम्पूर्ण भोग उसमें प्रवेश करते हैं। अक्रिय अवस्था में तो प्रवेश के सब द्वार ही बंद हैं, क्योंकि वहाँ इन्द्रियाँ विषयों के ससर्ग से रहित हैं। यहाँ इन्द्रियों का व्यवहार है, इसीलिए भोगों का उसमें प्रवेश सम्भव है। उसकी परमात्मा के स्वरूप में ‘अचल’ स्थिति है, परन्तु व्यवहार में वह अक्रिय नहीं है। अतएव यहाँ चैथे प्रश्न का उत्तर मानना ही युक्तियुक्त है।

विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः।

निर्ममो निरहकांरः स शान्तिमधिगच्छति।। 71।।

प्रश्न-ःसर्वान्’ विशेषण के सहित ‘कामान् पद किनका वाचक है और उनका त्याग कर देना क्या है?

उत्तर-इस लोक और परलोक के समस्त भोगों की सब प्रकार की कामनाओं का वाचक यहाँ ‘सर्वान्’ विशेषण के सहित ‘कामान्’ पद है। इन सब प्रकार के भोगों की समस्त कामनाओं से सदा के लिये सर्वथा रहित हो जाना ही इनका त्याग कर देना है।

यहाँ ‘कामान्’ पद शब्दादि विषयों का वाचक नहीं है, क्योंकि इसमें अर्जुन के चैथे प्रश्न का उत्तर दिया जाता है और स्थित प्रज्ञ पुरुष किस प्रकार आचरण करता है यह बात बतलायी जाती है; अतः यदि यहाँ ‘कामान्’ पद का अर्थ शब्दादि विषय मान लिया जाय तो उनका सर्वथा त्याग करके विचरना नहीं बन सकता।

प्रश्न-‘निरहंकारः’, ‘निर्ममः’, और ‘निःस्पृहः-इन तीनों पदों के अलग-अलग क्या भाव हैं तथा ऐसा होकर विचरना क्या है?

उत्तर-मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर में जो साधारण अज्ञानी मनुष्यों का आत्माभिमान रहता है, जिसके कारण वे शरीर को ही अपना स्वरूप मानते हैं, अपने को शरीर से भिन्न नहीं समझते, अतएव शरीर के सुख-दुःख से ही सुखी-दुखी होते हैं, उस देहाभिमान का नाम अहंकार है; उससे सर्वथा रहित हो जाना-यही ‘निरहंकार’ अर्थात् अहंकार रहित हो जाना है।

मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर में, उसके साथ सम्बन्ध रखने वाले स्त्री, पुत्र, भाई और बन्धु-बान्धवों में तथा गृह, धन, ऐश्वर्य आदि पदार्थों में अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों में और उन कर्मों के फलरूप समस्त भोगों में साधारण मनुष्यों का ममत्व रहता है अर्थात् इन सबको वे अपना समझते हैं; इसी भाव का नाम ‘ममता’ है और इससे सर्वथा रहित हो जाना ही ‘निर्मम’ अर्थात् ममता रहित हो जाना है।

किसी अनुकूल वस्तु का अभाव होने पर मन में जो ऐसा भाव होता है कि अमुक वस्तु की आवश्यकता है, उसके बिना काम न चलेगा, इस अपेक्षा का नाम स्पृहा है और इस अपेक्षा से सर्वथा रहित हो जाना ही ‘निःस्पृह’ अर्थात् स्पृहा रहित होना है। स्पृहा कामना का सूक्ष्म स्वरूप है, इस कारण समस्त कामनाओं के त्याग से इसके त्याग को अलग बतलाया है।

इस प्रकार अहंकार, ममता और स्पृहा से रहित होकर अपने वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति के अनुसार केवल लोक संग्रह के लिये इन्द्रियों के विषयों में विचरना अर्थात् देखना-सुनना, खाना-पीना, सोना-जागना आदि समस्त शास्त्र विहित चेष्टा करना ही समस्त कामनाओं का त्याग करके अहंकार, ममता और स्पृहा से रहित होकर विचरण करना है।

प्रश्न-यहाँ निःस्पृहा पद का अर्थ आसक्ति रहित मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है?

उत्तर-स्पृहा आसक्ति का ही कार्य है, इसलिये यहाँ स्पृहा का अर्थ आसक्ति मानने में कोई दोष तो नहीं है; परन्तु ‘स्पृहा’ शब्द का अर्थ वस्तुतः सूक्ष्म कामना है, आसक्ति नहीं। अतएव आसक्ति न मानकर इसे कामना का ही सूक्ष्म स्वरूप मानना चाहिये।

प्रश्न-कामना और स्पृहा से रहित बतलाने के बाद फिर ‘निर्ममः’ और निरहंकारः‘ कहने से क्या प्रयोजन है?

उत्तर-यहाँ पूर्ण शान्ति को प्राप्त सिद्ध पुरुष का वर्णन है। इसीलिये उसे निष्काम और निःस्पृह के साथ ही निर्मम और निरहंकार भी बतलाया गया है। क्योंकि अधिकांश में निष्काम और निःस्पृह होने पर भी यदि किसी पुरुष में ममता और अहंकार रहते हैं तो वह सिद्ध पुरुष नहीं है और जो मनुष्य निष्काम, निःस्पृह एवं निर्मम होने पर भी अहंकार रहित नहीं है, वह भी सिद्ध नहीं है। अहंकार के नाश से ही सबका नाश है। जब तक कारण रूप अहंकार बना है तब तक कामना, स्पृहा और ममता भी किसी न किसी रूप में रह ही सकती है और जब तक किंचित भी कामना, स्पृहा, ममता और अहंकार हैं तब तक पूर्ण शान्ति की प्राप्ति नहीं होती। यहाँ ‘शान्तिम् अधिगच्छति’ वाक्य से पूर्ण शान्ति की ही बात सिद्ध होती है। इस प्रकार की पूर्ण और नित्य शान्ति ममता और अहंकार के रहते कभी प्राप्त नहीं होती। इसलिये निष्काम और निःस्पृह कहने के बाद भी निर्मम और निरहंकार कहना उचित ही है।
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