श्राद्ध का अध्यात्मशास्त्रीय महत्व
हिंदू धर्म में ईश्वर प्राप्ति के मूलभूत सिद्धांतों में से एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है चार ऋण चुकाना। ईश्वर प्राप्ति हेतु प्रयास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण और समाजऋण यह चार ऋण चुकाने पड़ते हैं। इसमें से पितरों का ऋण चुकाने के लिए पितरों के लिए श्राद्ध विधि करना आवश्यक होता है । माता-पिता और उसी प्रकार समीप के व्यक्तियों का मृत्यु पश्चात का प्रवास सुखमय और क्लेश रहित हो उन्हें सद्गति मिले इसलिए यह संस्कार अर्थात् श्राद्ध किया जाता है । इस वर्ष 10 सितंबर से 25 सितंबर तक का समय पितृ पक्ष है । हर वर्ष पितृ पक्ष की कृष्ण पक्ष में महालय श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध विधि यह हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण आचार है और वेद काल का आधार भी है । अवतारों ने भी श्राद्ध विधि किया था, यह उल्लेख पाया गया है ।
श्राद्ध के मंत्रो में पितरों को गति देने की सूक्ष्म शक्ति समाई रहती है । श्राद्ध का इतना महत्व होने पर भी आज हिंदुओं में धर्म शिक्षण का अभाव, उनका अध्यात्म के ऊपर अविश्वास आदि कारणों के कारण श्राद्ध विधि को नजरअंदाज व अनावश्यक कर्मकांड में गिना जाने लगा है । इसी कारण अन्य संस्कारो के जैसा श्राद्ध संस्कार भी अति आवश्यक किस प्रकार है यह बताना आवश्यक है । श्राद्ध का क्या अर्थ क्या है उसके पीछे का इतिहास, पितृपक्ष में श्राद्ध और दत्त का नामजप करने का महत्व, श्राद्ध विधि करने के पीछे का उद्देश्य, श्राद्ध किसने करना चाहिए ? श्राद्ध करने में अड़चन हो तो उसे दूर करने का तरीका आदि विषयों में जानकारी देने के लिए यह लेख संकलित किया गया है।
श्राद्ध शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ : 'श्रद्धा' इस शब्द से श्राद्ध शब्द का निर्माण हुआ है । भूलोक छोड़ कर गए हमारे माता-पिता ने हमारे लिए जो कुछ किया है उसका ऋण चुकाना असंभव है उनके लिए जो पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाता है वह श्राद्ध है ।
श्राद्ध शब्द की व्याख्या : ब्रह्म पुराण में श्राद्ध की व्याख्या इस प्रकार की गई है। देश, काल और योग्य स्थान को ध्यान में रखकर श्रद्धा और विधि से युक्त, पितरों के स्मरणार्थ ब्राह्मणों को जो दान दिया जाता है उसको श्राद्ध कहते हैं ।
श्राद्ध विधि का इतिहास : श्राद्ध विधि की मूल कल्पना ब्रह्म देवता के पुत्र अत्रि ऋषि की है । अत्रि ऋषि ने अपने निमी नामक वंशज को ब्रह्मदेव द्वारा बताई गई श्राद्ध विधि सुनाई । वह परम्परा आज भी चालू है । मनु ने प्रथम बार श्राद्ध क्रिया की । इसलिए मनु को श्राद्धदेव कहते हैं । लक्ष्मण और जानकी जी के साथ राम जब वनवास के लिए गए तब भरत वनवास में उनसे भेंट करते हैं और उनको पिता के निधन का समाचार देते हैं उसके पश्चात राम जी उसी जगह पिता का श्राद्ध करते हैं, ऐसा उल्लेख रामायण में है । ऋग्वेद के समय समिधा और पिंड इसकी अग्नि में आहुति देकर की हुई पितरों की पूजा अर्थात अग्नौकरण, पिंड की तिल के द्वारा शास्त्रोक्त विधि से की हुई पूजा अर्थात पिंड दान और ब्राह्मण भोजन इस क्रम से बनी श्राद्ध की तीन अवस्थाएं हैं । पूर्व समय की इन तीनों ही अवस्था को एकत्रित किया गया है । धर्म शास्त्र में यह श्राद्ध गृहस्थ आश्रम में रहने वाले लोगों को उनका कर्तव्य बताया गया है ।
श्राद्ध करने का उद्देश्य :
- पितृलोक को प्राप्त हुए पितरों को आगे के लोक में जाने के लिए गति मिले इस कारण श्राद्ध विधि के द्वारा उनकी सहायता की जाती है ।
- हमारे कुल के जिन मृत व्यक्तियों को उनके अतृप्त वासना के कारण सद्गति प्राप्त नहीं हो पाती अर्थात वे उच्च लोक में ना जाकर नीचे के लोक में ही अटक जाते हैं उनकी इच्छा,आकांक्षा श्राद्ध विधि के द्वारा पूर्ण करके उनको आगे की गति प्राप्त करवाना यह उद्देश्य है ।
पितृपक्ष में श्राद्ध करने का महत्व और विधि : पितृपक्ष हिंदू धर्म में बताया गया एक व्रत है, भाद्रपद प्रतिपदा से अमावस्या तक प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिए ऐसा शास्त्र वचन है । पितरों के लिए श्राद्ध ना करने पर उनकी इच्छा अतृप्त रहने पर परिवार वालों को कष्ट होने की संभावना रहती है । श्राद्ध के कारण पितरों का रक्षण होता है उन को गति मिलती है और हमारा जीवन भी सुसह्य होता है। पितृपक्ष में 1 दिन पितरों का श्राद्ध करने पर वे साल भर तृप्त रहते हैं । पितृपक्ष में श्राद्ध करना यदि संभव ना हो तो जिस तिथि को आपके पिता की मृत्यु हुई हो उस दिन या पक्ष में सर्वपितृ के दिन महालय श्राद्ध करने की परंपरा है। योग्य तिथि पर भी महालय श्राद्ध करना असंभव हो तो सूर्य वृश्चिक राशि में प्रवेश करने तक किसी भी योग्य तिथि को श्राद्ध किया जा सकता है ।
पितृपक्ष में दत्त नाम जप करने का महत्व : दत्त देवता का नाम जप करने से पूर्वजों को गति मिलने में और पितरों के कष्ट से रक्षण होने में सहायता होती है इसलिए पितृ पक्ष में प्रतिदिन अधिक से अधिक दत्त देवता का नाम जप करना चाहिए पितृ पक्ष में कम से कम 72 माला नाम जप करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
श्राद्ध किसे करना चाहिए ?
स्वयं करने का महत्व - श्राद्ध विधि स्वयं करनी चाहिए परंतु स्वयं करना नहीं आता हो तो ब्राह्मण को बुलाकर करवाना चाहिए। आजकल श्राद्ध करने वाले ब्राह्मण भी मिलना कठिन हो गया है। इस पर उपाय के रूप में श्राद्ध संकल्प विधि पुस्तक मिलती है उसको लाकर प्रत्येक व्यक्ति ने श्राद्ध संकल्प विधि का पाठ करना चाहिए। यह पाठ संस्कृत भाषा में रहता है। हम अन्य भाषा तो सीखते ही हैं संस्कृत तो देव भाषा है और यह सरलता से आ जाती है (उपरोक्त सूत्र तत्वत: योग्य होने पर भी संस्कृत भाषा का उच्चारण कठिन व शास्त्र में बताई हुई विधि का आकलन होने की मर्यादा यह सब देखते हुए श्राद्ध विधि स्वयं करना प्रत्येक को संभव हो ऐसा नहीं है। ऐसे लोगों ब्राह्मण या ब्राह्मण ना मिलने पर किसी जानकार द्वारा भी श्राद्ध विधि करवा सकते हैं क्योंकि श्राद्ध विधि होना यह आवश्यक है ।)
श्राद्ध पक्ष आदि पितरों के लिए की जाने वाली विधि लड़के ने करना आवश्यक है - पूर्वजों के स्पंदन और उन के सबसे निकट के वारिस के स्पंदनों में काफी समानता होती है । यदि सूक्ष्म देह वेदना का अनुभव कर रहा हो तो उसके कष्ट के स्पंदन उस के सबसे करीब के वारिस को भी अनुभव में आते हैं। इसी कारण से श्राद्ध पक्ष में पितरों के लिए की जाने वाली विधि लड़के को करना चाहिए। लड़के के स्पंदन और पितरों के स्पंदन एक जैसे होने के कारण श्राद्ध तर्पण के समय लड़के द्वारा दिए हुए तर्पण को पितरों को ग्रहण करना सरल होता है।
स्त्रियों ने श्राद्ध करना - लड़की,पत्नी, मां और बहू इनको भी श्राद्ध करने का अधिकार है ऐसा कहा गया है । ऐसा होने पर भी कई पंडित स्त्रियों को श्राद्ध करने की सहमति नहीं देते हैं। इसका कारण यह है कि पूर्व समय में स्त्रियों का जनेऊ संस्कार होता था परंतु आजकल यह संस्कार सभी जगह बंद हो जाने के कारण श्राद्ध स्त्रियों के द्वारा करना यह भी बंद हो गया है परंतु आपातकाल में श्राद्ध करने के लिए कोई भी उपलब्ध ना होने पर श्राद्ध न करने की अपेक्षा स्त्रियों ने करना चाहिए ।
श्राद्ध विधि अमुक व्यक्ति नहीं कर सकता इसलिए नहीं किया ऐसा किसी को भी कहने की संधि ना देने वाला हिंदू धर्म ! - लड़का, लड़की, पोता, परपोता, पत्नी, संपत्ति में हिस्सा प्राप्त लड़की का लड़का, सगा भाई, भतीजा, चचेरे भाई का लड़का, पिता, मां, बहू, बडी और छोटी बहन के लड़के, मामा ,सपिंड (सात पीढ़ी तक के कुल के कोई भी), समानोदक (सात पीढ़ी के बाद के गोत्र के कोई भी) शिष्य, उपाध्याय, मित्र, दामाद क्रम से पहला ना हो तो दूसरा भी श्राद्ध कर सकते हैं। संयुक्त परिवार में उत्तर दायित्व निभाए हुए व्यक्ति ने श्राद्ध करना चाहिए । और विभक्त होने पर प्रत्येक ने स्वतंत्र श्राद्ध करना चाहिए । प्रत्येक मृत व्यक्ति के लिए श्राद्ध किया जाए और उसे सद्गति मिले ऐसी हिंदू धर्म में सिद्धता की गई है । यदि किसी मृत व्यक्ति का कोई भी ना हो तो उसका श्राद्ध करने का कर्तव्य राजा का होता है ऐसा धर्मसिंधु ग्रंथ में उल्लेख किया गया है ।
श्राद्ध करने में अड़चन आने पर उसे दूर करने का मार्ग :







उपरोक्त कुछ भी करने में असमर्थ होने पर आगे दिए अनुसार श्राद्ध करना चाहिए :










ऊपर बताएं विधि के अनुसार करने में असमर्थ होने पर आगे बताए अनुसार श्राद्ध करना चाहिए :



इस प्रकार इन सभी प्रकारों में से हर वर्ष श्राद्ध के दिन पितरों को स्मरण करके किसी भी प्रकार से श्राद्ध करना चाहिए । श्राद्ध किए बिना नहीं रहना चाहिए । यही इसका मुख्य उद्देश्य है।
इस लेख के द्वारा हमारे महान ऋषि मुनियों ने श्राद्ध रूपी अनमोल संस्कृति जो प्रदान की है उस परंपरा को चालू रखने की सद्बुद्धि हो, सभी को उसका लाभ हो, उसी प्रकार श्राद्ध विधि श्रद्धा के साथ कर पाएं, अपने पूर्वजों की और स्वयं की उन्नति हो यही ईश्वर चरणों में प्रार्थना है । संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ ' श्राद्व और श्राद्ध के कृति के पीछे का शास्त्र '
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